Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 2 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आप्रियः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वन॑स्प॒तेऽव॑ सृ॒जोप॑ दे॒वान॒ग्निर्ह॒विः श॑मि॒ता सू॑दयाति। सेदु॒ होता॑ स॒त्यत॑रो यजाति॒ यथा॑ दे॒वानां॒ जनि॑मानि॒ वेद॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॑स्पते । अव॑ । सृ॒ज॒ । उप॑ । दे॒वान् । अ॒ग्निः । ह॒विः । श॒मि॒ता । सू॒द॒या॒ति॒ । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । होता॑ । स॒त्यऽत॑रः । य॒जा॒ति॒ । यथा॑ । दे॒वाना॑म् । जनि॑मानि । वेद॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पतेऽव सृजोप देवानग्निर्हविः शमिता सूदयाति। सेदु होता सत्यतरो यजाति यथा देवानां जनिमानि वेद ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पते। अव। सृज। उप। देवान्। अग्निः। हविः। शमिता। सूदयाति। सः। इत्। ऊँ इति। होता। सत्यऽतरः। यजाति। यथा। देवानाम्। जनिमानि। वेद ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वनस्पते ! शमिता त्वं यथाग्निर्हविः सूदयाति तथा देवानुपाऽव सृज यथा होता यजाति तथेदु सत्यतरो भव यो देवानां जनिमानि वेद स पदार्थविद्यां प्राप्तुमर्हति ॥१०॥

    पदार्थः

    (वनस्पते) वनानां किरणानां पालक सूर्य इव विद्वन् (अव) (सृज) (उप) (देवान्) (अग्निः) पावकः (हविः) हुतं द्रव्यम् (शमिता) शान्तियुक्तः (सूदयाति) सूदयेत् क्षरयेत् (सः) (इत्) एव (उ) (होता) दाता (सत्यतरः) यः सत्येन दुःखं तरति (यजाति) यजेत् (यथा) (देवानाम्) दिव्यानां पृथिव्यादिपदार्थानां विदुषां वा (जनिमानि) जन्मानि (वेद) जानाति ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यदि भवन्तः सूर्य्यो वर्षा इव होता यज्ञमिव विद्वान् विद्या इवाऽध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वोपकारं साध्नुयुस्तर्हि भवादृशाः केऽपि न सन्तीति वयं विजानीयामः ॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वनस्पते) किरणों के पालक सूर्य के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! (शमिता) शान्तियुक्त आप (यथा) जैसे (अग्निः) अग्नि (हविः) हवन किये द्रव्य को (सूदयाति) छिन्न-भिन्न करे, वैसे (देवान्) दिव्यगुणों को (उप, अव, सृज) फैलाइये जैसे (होता) दाता (यजाति) यज्ञ करे, वैसे (इत्) ही (उ) तो (सत्यतरः) सत्य से दुःख के पार होनेवाले हूजिये। जो (देवानाम्) पृथिव्यादि दिव्य पदार्थों वा विद्वानों के (जनिमानि) जन्मों को (वेद) जानता है, (सः) वह पदार्थविद्या को प्राप्त होने योग्य है ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे विद्वानो ! यदि आप लोग सूर्य जैसे वर्षा को, होता जैसे यज्ञ को और विद्वान् जैसे विद्या को, वैसे पढ़ाने और उपदेश से सर्वोपकार को सिद्ध करें तो आप के तुल्य कोई लोग नहीं हो, यह हम जानते हैं ॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य वनस्पतिवत् राजा के कर्त्तव्य । पाचकवत् नायक के कर्त्तव्य । शमिता अग्नि का स्वरूप

    भावार्थ

    हे (वनस्पते ) किरणों के पालक सूर्य के समान (वनस्पते) महावृक्ष, वटादि के समान आश्रित, शरण धनादि के याचकों के पालक ! राजन् ! एवं शत्रुओं के हिंसक सैन्य जनों के पति सेनापते ! ( देवान्) सूर्य जिस प्रकार किरणों को प्रकट करता है उसी प्रकार तू भी ( देवान्) उत्तम गुणों को, ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुषों को और अग्नि, जल, पृथिवी आदि दिव्य तत्वों को तथा विद्या धनादि की कामना करने वाले शिष्यादि जनों को भी ( उप अव सृज) अपने समीप और अपने अधीन रख, उनको सन्मार्ग में चला, तथा उपभोग कर । ( शमिता हविः सूदयाति) पाचक जिस प्रकार अन्न को पकाता और रसयुक्त करता है उसी प्रकार ( अग्निः ) अग्नि ही ऐसा है जो हमें ( शमिता ) शान्ति, सुख कल्याण का करने वाला होकर ( हविः ) ग्राह्य अन्नादि पदार्थ, को (सूदयाति ) पकाता है, वही ( हविः ) देह में मुख के मार्ग से ग्रहण किये अन्न को रस बना कर देह के अंग २ में ( सूदयाति ) प्रवाहित करता है । इसी प्रकार (अग्निः) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष ( शमिता ) प्रजा वा राष्ट्र में शान्तिकारक होकर ( हविः सूदयाति ) अन्न, कर आदि को ग्रहण कर विभक्त करे । ( सः इत् होता ) वही, 'होता' देने और लेने में समर्थ ( सत्य-तरः ) सत्य, न्याय के बल से स्वयं सर्व श्रेष्ठ, एव अन्यों को अज्ञान, दुःखों से पार करने वाला, होकर (यजाति) ज्ञान, न्याय और धनका यथोचित रूप से प्रदान करे, (यथा) क्योंकि वही ( देवानां ) देव, उत्तम गुणों, विद्वानों और विद्या के इच्छुक शिष्य, आदि के भी ( जनमानि ) यथार्थ रूपों, तथा जन्मों आदि को (वेद) जानता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। आप्रं देवता ॥ छन्दः – १, ९ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ६, ७, ८, १०, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वनस्पतिः

    पदार्थ

    ३.४.१० पर अर्थ द्रष्टव्य है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे विद्वानांनो ! जर तुम्ही सूर्य जशी वृष्टी करतो, होता जसा यज्ञ करतो, विद्वान जशी विद्या देतो तसे अध्यापन व उपदेश करून सर्वांवर उपकार केल्यास तुमच्यासारखे कोणीही नाही हे आम्ही जाणतो. ॥ १० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Giver of life and nourishment to the woods, lord of light and sun rays, take up the fragrance and reach it across to the generous powers of nature and humanity. Agni, fire of yajna, has catalysed and refined the holy materials in the vedi for diffusion. Agni, that’s the yajaka of nature, ever true and more which coexists with the divine elements of nature from their origin, joins them, and refines and intensifies them for the common good of nature and humanity.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top