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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आप्रियः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त योष॑णे दि॒व्ये म॒ही न॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ सू॒दुघे॑व धे॒नुः। ब॒र्हि॒षदा॑ पुरुहू॒ते म॒घोनी॒ आ य॒ज्ञिये॑ सुवि॒ताय॑ श्रयेताम् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । योष॑णे॒ इति॑ । दि॒व्ये इति॑ । म॒ही इति॑ । नः॒ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । सु॒दुघा॑ऽइव । धे॒नुः । ब॒र्हि॒ऽसदा॑ । पु॒रु॒हू॒ते इति॑ पु॒रु॒ऽहू॒ते । म॒घोनी॒ इति॑ । आ । य॒ज्ञिये॑ । सु॒वि॒ताय॑ । श्र॒ये॒ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत योषणे दिव्ये मही न उषासानक्ता सूदुघेव धेनुः। बर्हिषदा पुरुहूते मघोनी आ यज्ञिये सुविताय श्रयेताम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। योषणे इति। दिव्ये इति। मही इति। नः। उषासानक्ता। सुदुघाऽइव। धेनुः। बर्हिऽसदा। पुरुहूते इति पुरुऽहूते। मघोनी इति। आ। यज्ञिये। सुविताय। श्रयेताम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विदुष्यः स्त्रियः कीदृश्यो भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! ये नो यज्ञिये मघोनी योषणे इव दिव्ये मही धेनुः सुदुघेवोत बर्हिषदा पुरुहूते उषासानक्ता न आश्रयेतां ते सुविताय यथावत्सेवनीये ॥६॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (योषणे) विदुष्यौ स्त्रियाविव (दिव्ये) शुद्धस्वरूपे (मही) महत्यौ (नः) अस्मभ्यम् (उषासानक्ता) रात्रिप्रातर्वेले (सुदुघेव) सुष्ठुकामप्रपूरिकेव (धेनुः) गौर्विद्यायुक्ता वाग्वा (बर्हिषदा) ये बर्हिष्यन्तरिक्षे सीदन्ति (पुरुहूते) बहुभिर्व्याख्याते (मघोनी) बहुधननिमित्ते (आ) (यज्ञिये) यज्ञसम्बन्धिनि कर्मणि (सुविताय) ऐश्वर्याय (श्रयेताम्) सेवेयाताम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! याः स्त्रियो दिव्यविद्यागुणऽन्विता रात्र्युषर्वत्सुखप्रदाः सत्या वागिव प्रियवचनाः स्युस्ता एव यूयमाश्रयत ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विदुषी स्त्रियाँ कैसी हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जो (नः) हमारे लिये (यज्ञिये) सम्बन्धी कर्म में (मघोनी) बहुत धन मिलने के निमित्त (योषणे) उत्तम स्त्रियों के तुल्य (दिव्ये) शुद्धस्वरूप (मही) बड़ी (धेनुः) विद्यायुक्त वाणी वा गौ (सुदुघेव) सुन्दर प्रकार कामनाओं को पूर्ण करनेवाली के तुल्य (उत) और (बर्हिषदा) अन्तरिक्ष में रहनेवाली (पुरुहूते) बहुतों से व्याख्यान की गई (उषासानक्ता) दिन रात रूप वेला हम को (आ, श्रयेताम्) आश्रय करें, वे दिन रात (सुविताय) ऐश्वर्य के लिये यथावत् सेवने योग्य हैं ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो स्त्रियाँ उत्तम विद्या और गुणों से युक्त, रात्रि दिन के तुल्य सुख देनेवाली सत्य वाणी के तुल्य प्रिय बोलनेवाली हों, उन्हीं का तुम लोग आश्रय करो ॥६॥

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    विषय

    दिन रात्रिवत् युवा युवति जन के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सुदुधा-इव धेनुः ) उत्तम दूध देने वाली गौ और वाणी के समान कल्याणकारक ( दिव्ये योषणे ) उत्तम गुणयुक्त युवा युवतीजन ( उपासानक्का न ) दिन रात्रि के समान ( बर्हि-सदा ) उत्तम आसन पर विराजने वाले ( पुरु-हूते ) बहुतों से प्रशंसित, ( मघोनी ) ऐश्वर्यवान् और ( यज्ञिये ) दान, सत्संग योग्य होकर ( सुविताय ) कल्याण और उत्तम सन्तान को प्राप्त करने के लिये ( श्रयेताम् ) परस्पर का आश्रय लें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। आप्रं देवता ॥ छन्दः – १, ९ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ६, ७, ८, १०, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उषासानक्ता

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (उषासानक्ता) = ये उषाकाल व रात्रि-प्रातः व सायं दोनों अग्निहोत्र के समय हैं। इन्हीं दोनों समयों पर अग्निहोत्र का विधान है। ये प्रातः सायं (नः) = हमारे लिये (योषणे) = बुराई को दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले हों। (दिव्ये) = ये हमारे लिये दिव्य हों, प्रकाशमय हों अथवा हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को जन्म देनेवाले हों। ये (सुदुघा धेनुः इव) = सुख- सन्दोहा गौ के समान हों जैसे वह गौ प्रात:सायं दूध को देती है, इसी प्रकार ये हमारे लिये ज्ञानदुग्ध को देनेवाले हों। [२] (बर्हिषदा) = ये यज्ञ के कुशासन पर बैठनेवाले हों, हम प्रात:सायं दर्भासन पर स्थित होकर अग्निहोत्र को करनेवाले हों। (पुरुहूते) = ये बहुतों से पुकारे गये उषासानक्ता [प्रात:- सायं] (मघोनी) = हमारे लिये प्रशस्त धनों को प्राप्त करायें। (यज्ञिये) = यज्ञ के लिये उत्तम ये उषासानक्ता (सुविताय) = सुवित के लिये, सदाचरण के लिये (आश्रयेताम्) = आश्रय करें। हम प्रात:-सायं यज्ञ करते हुए दिनभर शुभ कर्मों को ही करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे प्रातः व सायंकाल यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में बीतें। प्रातः सायं यज्ञ करते हुए हम अवशिष्ट दिन को भी सदाचरण से ही [सुवित से ही] बितायें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या स्त्रिया उत्तम विद्या व गुणांनी युक्त रात्र व दिवसाप्रमाणे सुख देणाऱ्या, सत्य वाणीप्रमाणे प्रिय बोलणाऱ्या असतील त्यांचाच तुम्ही आश्रय घ्या. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may the holy and divine night and the dawn, both celestial maidens of the universe abiding in spaces between heaven and earth, abundant with beauty and power, universally invoked and adored, worthy of worship, come and bless us in life for happiness and well being, like the mother earth, like the generous mother cow, and like the infinite speech of divine revelation.

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