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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आप्रियः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    स्वा॒ध्यो॒३॒॑ वि दुरो॑ देव॒यन्तोऽशि॑श्रयू रथ॒युर्दे॒वता॑ता। पू॒र्वी शिशुं॒ न मा॒तरा॑ रिहा॒णे सम॒ग्रुवो॒ न सम॑नेष्वञ्जन् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । वि । दुरः॑ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । अशि॑श्रयुः । र॒थ॒ऽयुः । दे॒वऽता॑ता । पू॒र्वी इति॑ । शिशु॑म् । न । मा॒तरा॑ । रि॒हा॒णे इति॑ । सम् । अ॒ग्रुवः॑ । न । सम॑नेषु । अ॒ञ्ज॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाध्यो३ वि दुरो देवयन्तोऽशिश्रयू रथयुर्देवताता। पूर्वी शिशुं न मातरा रिहाणे समग्रुवो न समनेष्वञ्जन् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽआध्यः। वि। दुरः। देवऽयन्तः। अशिश्रयुः। रथऽयुः। देवऽताता। पूर्वी इति। शिशुम्। न। मातरा। रिहाणे इति। सम्। अग्रुवः। न। समनेषु। अञ्जन् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    ये स्वाध्यो देवयन्तो जना देवताता रथयुरिव रिहाणे पूर्वी मातरा शिशुं न समनेष्वग्रुवो न दुरो व्यशिश्रयुः समञ्जँस्ते सुखकारकाः स्युः ॥५॥

    पदार्थः

    (स्वाध्यः) सुष्ठु चिन्तयन्तः (वि) (दुरः) द्वाराणि (देवयन्तः) देवान् विदुषः कामयन्तः (अशिश्रयुः) श्रयन्ति (रथयुः) रथं कामयमानः (देवताता) देवैरनुष्ठातव्ये सङ्गन्तव्ये व्यवहारे (पूर्वी) पूर्व्यौ (शिशुम्) बालकम् (न) इव (मातरा) मातापितरौ (रिहाणे) स्वादयन्त्यौ (सम्) (अग्रुवः) अग्रं गच्छन्त्यः सेनाः (न) इव (समनेषु) सङ्ग्रामेषु (अञ्जन्) गच्छन्ति ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सम्यग्विचारयन्तो विद्वत्सङ्गप्रियाः यज्ञवत्परोपकारका मातापितृवन्सर्वानुन्नयन्तः संग्रामाञ्जयन्तो न्यायेन प्रजाः पालयन्ति ते सदा सुखिनो जायन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (स्वाध्यः) सुन्दर विचार करते (देवयन्तः) विद्वानों को चाहते हुए जन (देवताता) विद्वानों के अनुष्ठान या सङ्ग करने योग्य व्यवहार में (रथयुः) रथ को चाहनेवाले के तुल्य (रिहाणे) स्वाद लेते हुए (पूर्वी) अपने से पूर्व हुए (मातरा) माता-पिता (शिशुम्, न) बालक के तुल्य (समनेषु) संग्रामों में (अग्रुवः) आगे चलती हुई सेनाएँ (न) जैसे, वैसे (दुरः) द्वारों का (वि, अशिश्रयुः) विशेष आश्रय करते हैं और (सम्, अञ्जन्) चलते हैं, वे सुख करनेवाले होवें ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सम्यक् विचार करते हुए, विद्वानों के सङ्ग में प्रीति रखनेवाले यज्ञ के तुल्य परोपकारी, माता-पिता के तुल्य सब की उन्नति करते और संग्रामों को जीतते हुए, न्याय से प्रजाओं का पालन करते हैं, वे सदा सुखी होते हैं ॥५॥

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    विषय

    विद्वानों के वीरों के तुल्य कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( पूर्वी मातरा ) पूर्व विद्यमान माता और पिता ( शिशुं न ) दोनों जिस प्रकार बालक को ( रिहाणे ) नाना भोज्य पदार्थ का आस्वादन कराते हुए उसको ( समङ्क्तः ) अच्छी प्रकार अभ्यङ्ग-मर्दनादि से चमकाते हैं और ( समनेषु ) संग्रामों में जिस प्रकार (अग्रुव:) आगे २ बढ़ने वाली सेनाएं ( सम् अंजन् ) अपने नायक के गुणों को चमकातीं, उसको प्रसिद्ध करती हैं उसी प्रकार (देवयन्तः) विद्वानों को चाहने वाले ( स्वाध्यः ) उत्तम ध्यान और चिन्ता करने वाले, ( देवताता ) विद्वानों के करने योग्य उत्तम कार्य में ( रथयुः ) वीर रथी के समान ( दुरः अशिश्रयुः ) उत्तम द्वारों का आश्रय लेते हैं । इति प्रथमो वर्गः ।।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। आप्रं देवता ॥ छन्दः – १, ९ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ६, ७, ८, १०, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    देवीद्वरः

    पदार्थ

    [१] (स्वाध्यः) = उत्तम कर्मोंवाले, (देवयन्तः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाले, (रथयुः) = शरीररूप रथ को उत्तम बनानेवाले लोग देवताता-यज्ञों के निमित्त (दुरः) = यज्ञगृह द्वारों को (वि अशिश्रयुः) = विशेषरूप से आश्रित करते हैं। यज्ञ ही जीवन में हमें 'सुकर्मा, दिव्यगुणयुक्त व प्रशस्त शरीर-रथ - सम्पन्न' बनाते हैं। [२] (न) = जिस प्रकार पूर्वी पालन व पूरण करनेवाले (मातरा) = मातापिता (रिहाणे) = आस्वाद लेते हुए (शिशुम्) = बच्चे को (समञ्जन्) = अलंकृत करते हैं, गौवें बछड़े को चाटकर साफ़ कर डालती हैं- उसी प्रकार ये द्वार समनेषु यज्ञों में यज्ञकर्त्ता को अलंकृत करनेवाले होते हैं। अथवा (न) = जैसे (अग्रुव:) = नदियाँ जलों से क्षेत्रों को सिक्त करती हैं, उसी प्रकार ये यज्ञभूमि के दिव्य द्वार अग्नि को घृत से सिंचवाने का कारण बनते हैं, इन द्वारों से यज्ञभूमि में आकर अध्वर्यु अग्नि को घृत सिक्त करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- यज्ञगृह के द्वारों से यज्ञभूमि में आकर यज्ञ करते हुए लोग 'सुकर्मा, दिव्यगुणसम्पन्न व उत्तम शरीर-रथवाले' बनते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे सम्यक विचार करणारी, विद्वानांबरोबर प्रेमाने राहणारी, यज्ञाप्रमाणे परोपकारी, माता-पित्याप्रमाणे सर्वांची उन्नती करणारी व युद्ध जिंकणारी असून न्यायाने प्रजेचे पालन करतात ती सदैव सुखी होतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Devout thinkers and dedicated scholars committed to yajna and the divinities move at the speed of chariots in holy works, wide open the doors of heavenly bliss and beautify them for all in the battles of life. Loving and bold they are like young mothers to the child and advance forces for the ruler.

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