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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आप्रियः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ या॑ह्यग्ने समिधा॒नो अ॒र्वाङिन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॑ तु॒रेभिः॑। ब॒र्हिर्न॒ आस्ता॒मदि॑तिः सुपु॒त्रा स्वाहा॑ दे॒वा अ॒मृता॑ मादयन्ताम् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । अ॒र्वाङ् । इन्द्रे॑ण । दे॒वैः । स॒ऽरथ॑म् । तु॒रेभिः॑ । ब॒र्हिः । नः॒ । आस्ता॑म् । अदि॑तिः । सु॒ऽपु॒त्रा । स्वाहा॑ । दे॒वाः । अ॒मृताः॑ । मा॒द॒य॒न्ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याह्यग्ने समिधानो अर्वाङिन्द्रेण देवैः सरथं तुरेभिः। बर्हिर्न आस्तामदितिः सुपुत्रा स्वाहा देवा अमृता मादयन्ताम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। याहि। अग्ने। सम्ऽइधानः। अर्वाङ्। इन्द्रेण। देवैः। सऽरथम्। तुरेभिः। बर्हिः। नः। आस्ताम्। अदितिः। सुऽपुत्रा। स्वाहा। देवाः। अमृताः। मादयन्ताम् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथा समिधानोऽग्निस्सूर्यप्रकाश इन्द्रेण सहाऽर्वाङागच्छति तथाभूतस्त्वं तुरेभिर्देवैस्सह नस्सरथं बर्हिरा याहि यथा स्वाहा सुपुत्राऽदितिरस्ति तथा भवानत्राऽऽस्ताम् यथाऽमृता देवाः सर्वानानन्दयन्ति तथा भवन्तोऽपि सर्वान् मादयन्ताम् ॥११॥

    पदार्थः

    (आ) (याहि) आगच्छ (अग्ने) पावक इव (समिधानः) शुभगुणैर्देदीप्यमानः (अर्वाङ्) योऽर्वाङधोऽञ्चति (इन्द्रेण) विद्युता सहसूर्य्येण वा (देवैः) विद्वद्भिर्दिव्यगुणैर्वा (सरथम्) रथेन सह वर्त्तमानम् (तुरेभिः) आशुकारिभिः (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (नः) (अस्मभ्यम्) (अदितिः) माता (सुपुत्रा) शोभनाः पुत्रा यस्याः सा (स्वाहा) सत्यक्रियया (देवाः) विद्वांसः (अमृताः) प्राप्तमोक्षाः (मादयन्ताम्) आनन्दयन्तु ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा सूर्यप्रकाशो दिव्यैर्गुणैः सहाऽधःस्थानस्मान् प्राप्नोति यथा च सत्यविद्यया युक्तोत्तमसन्ताना सुखमास्ते तथैवाऽविदुषोऽस्मान् भवन्तः प्राप्य सुशिक्षन्तां सुखयन्त्विति ॥११॥ अत्राग्निमनुष्यविद्युद्विद्वदध्यापकोपदेशकोत्तमवाक्पुरुषार्थविद्वदुपदेशस्त्र्यादिकृत्यवर्णानादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वितीयं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्वन् ! जैसे (समिधानः) शुभ गुणों से देदीप्यमान अग्नि अर्थात् सूर्य्य का प्रकाश (इन्द्रेण) बिजुली वा सूर्य्य के साथ (अर्वाङ्) नीचे जानेवाला प्राप्त होता है, वैसे होकर आप भी (तुरेभिः) शीघ्र करनेवाले (देवैः) विद्वानों वा दिव्य गुणों के साथ (नः) हमारे लिये (सरथम्) रथ के साथ वर्त्तमान (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (आ, याहि) आइये और जैसे (स्वाहा) सत्यक्रिया से (सुपुत्रा) सुन्दर पुत्रों से युक्त (अदितिः) माता है, वैसे आप भी (आस्ताम्) स्थित होवें और जैसे (अमृता) मोक्ष को प्राप्त हुए (देवाः) विद्वान् जन सब को आनन्दित करते हैं, वैसे आप भी सब को (मादयन्ताम्) आनन्दित कीजिये ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे सूर्य्य का प्रकाश दिव्य गुण के साथ नीचे भी स्थित हम सबों को प्राप्त होता है और जैसे सत्यविद्या से युक्त और उत्तम सन्तानवाली माता सुखपूर्वक स्थित होती है, वैसे ही अविद्वान् हम सबों को आप प्राप्त होकर अच्छी शिक्षा दीजिये तथा सुखी कीजिये ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि, मनुष्य, बिजुली, विद्वान्, अध्यापक, उपदेशक, उत्तम वाणी, पुरुषार्थ, विद्वानों का उपदेश तथा स्त्री आदि के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह दूसरा सूक्त और दूसरा वर्ग भी समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अग्निवत् सेना नायक का वर्णन । उसकी सुपुत्रवती माता से तुलना ।

    भावार्थ

    ( समिधान: अग्निः यथा इन्द्रेण देवैः तुरेभिः अर्वाङ् आ याति ) अच्छी प्रकार दीप्तियुत अग्नि वा सूर्य-प्रकाश जिस प्रकार विद्युत्, मेघ और जलादि देने वाले वायुगण तथा दीप्ति युक्त प्रकाशों, रोगनाशक और अतिवेगयुक्त गुणों सहित ( स-रथं ) समान रंगरूप में हमें प्राप्त होता है उसी प्रकार हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! नायक ! तू भी ( समिधान: ) अच्छी प्रकार तेजस्वी होकर (इन्द्रेण) ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र और ( तुरेभि: ) शत्रु बल के नाशक और आशु कार्य करने वाले वीरों, ( देवैः ) उत्तम विद्वानों सहित ( अर्वाङ् आयाहि ) हमें विनय युक्त होकर वा ( अर्वाङ् ) अश्वोदि से युक्त होकर आ, प्राप्त हो । (बर्हिः न ) कुशा के आसन पर विद्वान् के समान (बर्हिः) वृद्धिशील राष्ट्र वा प्रजाजन के ऊपर ( आस्ताम् ) विराजे । वह ( स्वाहा ) उत्तम वचन, सत्य क्रिया और शुभ से ( सुपुत्रा अदितिः ) उत्तम पुत्रों की माता के समान, (अदितिः ) अखण्ड शासन और अदीन स्वभाव वाली हो । और ( देवाः ) देव, विद्वान्गण ( अमृताः ) राज्यों में दीर्घायु, मृत्युभय से रहित होकर ( मादयन्ताम् ) स्वयं सुखी हों और अन्यों को भी सुखी करें । इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। आप्रं देवता ॥ छन्दः – १, ९ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ६, ७, ८, १०, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्वाहाकृतयः

    पदार्थ

    ३.४.११ पर अर्थ द्रष्टव्य है। अगले सूक्त में 'अग्नि' नाम से प्रभु का उपासन है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा सूर्याचा दिव्यगुणयुक्त प्रकाश आम्हा सर्वांना प्राप्त होतो व जशी सत्य विद्येने युक्त उत्तम संतान असलेली माता सुखी असते तसे अविद्वान असलेल्या आम्हाला तुम्ही चांगले शिक्षण द्या व सुखी करा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, fire of life, light of the sun, brilliant scholar and teacher, come to us right here, burning, blazing, shining and illuminating, with Indra, light and power as that of thunder and lightning. Come by chariot across the spaces with the divines and forces of instant action, sit on the holy grass, and let Aditi, mother earth and nature, with her children of virtue and the immortal divinities all be happy and give us joy in truth of word and deed.

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