ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
तन्न॑स्तु॒रीप॒मध॑ पोषयि॒त्नु देव॑ त्वष्ट॒र्वि र॑रा॒णः स्य॑स्व। यतो॑ वी॒रः क॑र्म॒ण्यः॑ सु॒दक्षो॑ यु॒क्तग्रा॑वा॒ जाय॑ते दे॒वका॑मः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठतत् । नः॒ । तु॒रीप॑म् । अध॑ । पो॒ष॒यि॒त्नु । देव॑ । त्व॒ष्टः॒ । वि । र॒रा॒णः । स्य॒स्वेति॑ स्यस्व । यतः॑ । वी॒रः । क॒र्म॒ण्यः॑ । सु॒ऽदक्षः॑ । यु॒क्तऽग्रा॑वा । जाय॑ते । दे॒वऽका॑मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नस्तुरीपमध पोषयित्नु देव त्वष्टर्वि रराणः स्यस्व। यतो वीरः कर्मण्यः सुदक्षो युक्तग्रावा जायते देवकामः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठतत्। नः। तुरीपम्। अध। पोषयित्नु। देव। त्वष्टः। वि। रराणः। स्यस्वेति स्यस्व। यतः। वीरः। कर्मण्यः। सुऽदक्षः। युक्तऽग्रावा। जायते। देवऽकामः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे त्वष्टर्देव ! विरराणस्त्वं नस्तत्पोषयित्नु तुरीपं स्यस्वाऽध यतः कर्मण्यः सुदक्षो युक्तग्रावा देवकामो वीरो जायते ॥९॥
पदार्थः
(तत्) अध्यापनासनम् (नः) अस्माकम् (तुरीपम्) क्षिप्रम् (अध) अथ (पोषयित्नु) पोषकम् (देव) विद्वन् (त्वष्टः) विद्याप्रापक (वि) (रराणः) विद्या ददत् सन् (स्यस्व) विद्यां पारं गमय (यतः) (वीरः) (कर्मण्यः) कर्मसु कुशलः (सुदक्षः) सुष्ठु बलोपेतः (युक्तग्रावा) युक्तो योजितो ग्रावा मेघो येन सः (जायते) (देवकामः) देवानां विदुषां काम इच्छा यस्य सः ॥९॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेभ्यो लाभेभ्यो विद्यालाभमुत्तमं मत्वा तत्प्राप्तव्यं सदैव विद्वत्सङ्गमनं कृत्वा सदैव कर्मानुष्ठानी जायते सः श्रेष्ठात्मबलो भवति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (त्वष्टः) विद्या को प्राप्त करानेवाले (देव) विद्वान् ! (वि, रराणः) विशेष विद्या देते हुए (नः) हमारे (तत्) पढ़ाने के आसन को (पोषयित्नु) पुष्ट करनेवाले (तुरीपम्) शीघ्र (स्यस्व) विद्या को पार कीजिये (अध) अब (यतः) जिससे (कर्मण्यः) कर्मों में कुशल (सुदक्षः) सुन्दर बल से युक्त (युक्तग्रावा) मेघ को युक्त करने और (देवकामः) विद्वानों की कामना करनेवाला (वीरः) वीर पुरुष (जायते) प्रकट होता है ॥९॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को उचित है कि सब लाभों से विद्यालाभ को उत्तम मान के उसको प्राप्त हों, सदैव जो विद्वानों का सङ्ग करके सदा कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला होता है, वह श्रेष्ठ आत्मा के बलवाला होता है ॥९॥
विषय
प्रजा काम गृहस्थी को उपदेश ।
भावार्थ
हे ( देव ) कामनायुक्त ! पुत्र की इच्छा करने और वीर्यदान देने में समर्थ ! हे ( त्वष्टः ) तेजस्विन् ! हे प्रजा उत्पन्न करने हारे ! तू ( रराणः ) पत्नी के साथ रमण करता हुआ ( नः ) हमारे उपकार के लिये ( तत् ) उस ( तुरीपम् ) विनाश से बचानेवाले ( पोषयित्नु ) शरीर को पुष्ट करने वाले वीर्य को ( वि स्यस्व ) त्याग कर ( यत् ) जिससे ( कर्मण्यः ) कर्म करने में कुशल ( सु-दक्षः ) उत्तम चतुर, (युक्तग्रावा) विद्वानों का उपासक ( देवकामः ) विद्वानों का प्रिय, ( वीरः ) पुत्र (जायते) उत्पन्न होता है । इसी प्रकार ( त्वष्टा ) राज्य का कर्त्ता राजा सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष, वह हिंसकों से बचाने वाले राष्ट्रपोषक सैन्यबल को जोड़कर (रराणः) रमण करता हुआ, गर्जन सहित शत्रु पर अस्त्र छोड़े । जिस से कर्मकुशल वीर पुरुष (युक्त-ग्रावा) क्षात्रबल और शस्त्रादि से युक्त होकर अपने दाता स्वामी का प्रिय हो सके ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ।। आप्रं देवता ॥ छन्दः – १, ९ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ६, ७, ८, १०, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी सर्व लाभात विद्यालाभ उत्तम मानून तो प्राप्त करावा. जो सदैव विद्वानांबरोबर राहतो व सदैव कर्माचे अनुष्ठान करतो त्याचे आत्मबल श्रेष्ठ असते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Tvashta, brilliant maker of forms and shaper of men, generous and joyous giver of all round nourishment, physical, mental and spiritual, give us that vitality and that virility, that perfection of form, education and culture without delay from which is born the brave hero of action, expert scientist and technologist, specialist of clouds and rain dedicated to divinity as well as to noble humanity.
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