ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
यस्ते॒ मदो॒ युज्य॒श्चारु॒रस्ति॒ येन॑ वृ॒त्राणि॑ हर्यश्व॒ हंसि॑। स त्वामि॑न्द्र प्रभूवसो ममत्तु ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयः । ते॒ । मदः॑ । युज्यः॑ । चारुः॑ । अस्ति॑ । येन॑ । वृ॒त्राणि॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । हंसि॑ । सः । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो । म॒म॒त्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते मदो युज्यश्चारुरस्ति येन वृत्राणि हर्यश्व हंसि। स त्वामिन्द्र प्रभूवसो ममत्तु ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयः। ते। मदः। युज्यः। चारुः। अस्ति। येन। वृत्राणि। हरिऽअश्व। हंसि। सः। त्वाम्। इन्द्र। प्रभुवसो इति प्रभुऽवसो। ममत्तु ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किंवत्किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे प्रभूवसो हर्यश्वेन्द्र ! यस्ते युज्यश्चारुर्मदोऽस्ति येन सूर्यो वृत्राणि शत्रुसेनाङ्गानि हंसि स त्वां ममत्तु ॥२॥
पदार्थः
(यः) (ते) तव (मदः) आनन्दः (युज्यः) योक्तुमर्हः (चारुः) सुन्दरः (अस्ति) (येन) (वृत्राणि) मेघाङ्गानीव शत्रुसेनाङ्गानि (हर्यश्व) हरयो हरणशीलो अश्वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (हंसि) विनाशयसि (सः) (त्वाम्) (इन्द्र) (प्रभूवसो) यः समर्थश्चासौ वासिता च तत्सम्बुद्धौ (ममत्तु) आनन्दयतु ॥२॥
भावार्थः
येन येनोपायेन दुष्टा बलहीना भवेयुस्तं तमुपायं राजाऽनुतिष्ठेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (प्रभूवसो) समर्थ और वसानेवाले (हर्यश्च) हरणशील घोड़ों से युक्त (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् राजा ! (यः) जो (ते) आप का (युज्यः) योग करने योग्य (चारुः) सुन्दर (मदः) आनन्द (अस्ति) है वा (येन) जिससे सूर्य (वृत्राणि) मेघ के अङ्गों को, वैसे शत्रुओं की सेना के अङ्गों का (हंसि) विनाश करते हो (सः) वह (त्वाम्) तुम्हें (ममत्तु) आनन्दित करे ॥२॥
भावार्थ
जिस-जिस उपाय से दुष्ट बलहीन हों, उस-उस उपाय का राजा अनुष्ठान करे अर्थात् आरम्भ करे ॥२॥
विषय
वृत्रहनन शत्रुनाश ।
भावार्थ
हे ( हर्यश्व ) वेगयुक्त अश्वों के स्वामिन् ! हे मनुष्यों को अश्वों के समान सन्मार्ग पर चलाने हारे ! ( यः ) जो ( ते ) तेरा ( युज्यः) सहयोग देने योग्य, ( चारुः ) उत्तम ( मदः ) हर्ष (अस्ति) है और ( येन ) जिससे तू ( वृत्राणि ) मेघों को सूर्यवत् शत्रुओं को ( हंसि ) विनाश करता है, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( प्रभूवसो ) प्रचुर ऐश्वर्य के स्वामिन् ! ( सः ) वह (वा) तुझको (ममत्तु ) अति हर्षयुक्त बनावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – भुरिगुष्णिक् । २, ७ निचृद्नुष्टुप् । ६ भुरिगनुष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । ६, ८ विराडनुष्टुप् । ४ आर्ची पंक्तिः । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। नवर्चं सूक्तम्
विषय
वृत्र हनन और शत्रुनाश
पदार्थ
पदार्थ - हे (हर्यश्व) = वेगयुक्त अश्वों के स्वामिन् ! (यः) = जो (ते) = तेरा (युज्य:) = सहयोग देने योग्य, (चारुः) = उत्तम (मदः) = हर्ष (अस्ति) = है और (येन) = जिससे तू (वृत्राणि) = मेघों को सूर्यवत्, शत्रुओं का (हंसि) = विनाश करता है, हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! हे (प्रभूवसो) = प्रचुर ऐश्वर्य के स्वामिन् ! (सः) = वह (त्वा) = तुझको (ममत्तु) = अति हर्षयुक्त बनावे ।
भावार्थ
भावार्थ- अज्ञान को नष्ट करके ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके हर्षयुक्त रहना चाहिये।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या ज्या उपायांनी दुष्ट मनुष्य बलहीन होईल ते ते उपाय राजाने योजावेत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That beauty and joy of the governance of your dominion which is agreeable, inspiring and worthy of support and participation, and by which joy, O controller of the dynamic forces of the people, you break the negative forces of darkness, sin and crime, want and ignorance like the sun breaking dark clouds for showers, may that joy, O sovereign lord of power for settlement and prosperity, give you the real pleasure of creative governance and administration.
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