ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
न ते॒ गिरो॒ अपि॑ मृष्ये तु॒रस्य॒ न सु॑ष्टु॒तिम॑सु॒र्य॑स्य वि॒द्वान्। सदा॑ ते॒ नाम॑ स्वयशो विवक्मि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । गिरः॑ । अपि॑ । मृ॒ष्ये॒ । तु॒रस्य॑ । न । सु॒ऽस्तु॒तिम् । अ॒सु॒र्य॑स्य । वि॒द्वान् । सदा॑ । ते॒ । नाम॑ । स्व॒ऽय॒शः॒ । वि॒व॒क्मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते गिरो अपि मृष्ये तुरस्य न सुष्टुतिमसुर्यस्य विद्वान्। सदा ते नाम स्वयशो विवक्मि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठन। ते। गिरः। अपि। मृष्ये। तुरस्य। न। सुऽस्तुतिम्। असुर्यस्य। विद्वान्। सदा। ते। नाम। स्वऽयशः। विवक्मि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः परीक्षकाः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्यार्थिन् ! अनभ्यस्तविद्यस्य ते तुरस्य गिरो विद्वानहं न मृष्येऽपि त्वसुर्यस्य सुष्टुतिं न मृष्ये ते तव नाम स्वयशश्च सदा विवक्मि ॥५॥
पदार्थः
(न) (ते) तव (गिरः) वाचः (अपि) (मृष्ये) विचारये (तुरस्य) क्षिप्रं कुर्वतः (न) (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (असुर्यस्य) असुरेषु मूर्खेषु भवस्य (विद्वान्) (सदा) (ते) (नाम) संज्ञाम् (स्वयशः) स्वकीयकीर्तिम् (विवक्मि) विवेकेन परीक्षयामि ॥५॥
भावार्थः
विद्वान् परीक्षायां यानलसान् प्रमादिनो निर्बुद्धीन् पश्येत्तान्न परीक्षयेन्नाप्यध्यापयेत्। ये चोद्यमिनः सुबुद्धयो विद्याभ्यासे तत्परा बोधयुक्ताः स्युस्तान् सुपरीक्ष्य प्रोत्साहयेत् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर परीक्षक जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्यार्थी ! नहीं है विद्या में अभ्यास जिसको ऐसे (ते) तेरे (तुरस्य) शीघ्रता करनेवाले की (गिरः) वाणियों को (विद्वान्) विद्वान् मैं (न, मृष्ये) नहीं विचारता (अपि) अपितु (असुर्यस्य) मूर्खों में प्रसिद्ध हुए जन की (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशंसा को (न) नहीं विचारता (ते) तेरे (नाम) नाम और (स्वयशः) अपनी कीर्त्ति की (सदा) सदा (विवक्मि) विवेक से परीक्षा करता हूँ ॥५॥
भावार्थ
विद्वान् जन परीक्षा में जिनको आलसी, प्रमादी और निर्बुद्धि देखे, उनकी न परीक्षा करे और न पढ़ावे और जो उद्यमी अर्थात् परिश्रमी उत्तम बुद्धि, विद्याभ्यास में तत्पर बोधयुक्त हों, उनकी उत्तम परीक्षा कर उन्हें अच्छा उत्साह दे ॥५॥
विषय
राजा की वाणियों की अवहेलना न कर उसकी कीर्त्ति कहना ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( विद्वान्) मैं विद्वान् होकर भी ( ते गिरः ) तेरी वाणियों का ( न अपि मृष्ये ) त्याग न करूं । ( तुरस्य ) अति शीघ्र कार्यकर्ता, और शत्रुओं के हिंसक ( असुर्यस्य ) बलवानों में श्रेष्ठ तेरे ( सु-स्तु तिम्) उत्तम स्तुति को भी (न अपि मृष्ये ) त्याग न करूं । हे राजन् ! मैं ( ते नाम ) तेरे नाम या शत्रु को दबाने के सामर्थ्य को ही ( स्व यशः ) अपनी कीर्ति या बल ( वि वक्मि ) कहूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – भुरिगुष्णिक् । २, ७ निचृद्नुष्टुप् । ६ भुरिगनुष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । ६, ८ विराडनुष्टुप् । ४ आर्ची पंक्तिः । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। नवर्चं सूक्तम्
विषय
परमात्मा की वाणी की अवहेलना न करना
पदार्थ
पदार्थ-हे राजन् ! (विद्वान्) = मैं विद्वान् होकर (ते गिरः) = तेरी वाणियों को (न अपि मृष्ये) = न त्यागूँ। (तुरस्य) = अति शीघ्र कार्यकर्त्ता और शत्रु-हिंसक (असुर्यस्य) = बलवानों में श्रेष्ठ तेरी (सुस्तुतिम्) = उत्तम स्तुति को भी [न अपि मृष्ये] = न छोड़। मैं (ते नाम) = तेरे नाम, या सामर्थ्य को ही (स्वयशः) = अपनी कीर्त्ति या बल (विवक्मि) = कहूँ।
भावार्थ
भावार्थ- परमात्मा की आज्ञा वेदवाणी का सदैव पालन करना चाहिए।
मराठी (1)
भावार्थ
परीक्षेत जे आळशी, प्रमादी व निर्बुद्ध असतील त्यांची विद्वानांनी परीक्षा घेऊ नये व त्यांना शिकवू नये. जे उद्यमी अर्थात परिश्रमी, सुबुद्ध, विद्याभ्यासात तत्पर बोधयुक्त असतील त्यांचे उत्तम परीक्षण करून उत्साही बनवावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Never shall I forget your words, instant and mighty of action as you are, nor shall I, knowing your power and potential, ever neglect your appreciation and adoration. I value and appreciate the significance of your name and your innate honour and excellence.
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