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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    श्रु॒धी हवं॑ विपिपा॒नस्याद्रे॒र्बोधा॒ विप्र॒स्यार्च॑तो मनी॒षाम्। कृ॒ष्वा दुवां॒स्यन्त॑मा॒ सचे॒मा ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒धि । हव॑म् । वि॒ऽपि॒पा॒नस्य॑ । अद्रेः॑ । बोध॑ । विप्र॒स्य । अर्च॑तः । म॒नी॒षाम् । कृ॒ष्व । दुवां॑सि । अन्त॑मा । सचा॑ । इ॒मा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुधी हवं विपिपानस्याद्रेर्बोधा विप्रस्यार्चतो मनीषाम्। कृष्वा दुवांस्यन्तमा सचेमा ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुधि। हवम्। विऽपिपानस्य। अद्रेः। बोध। विप्रस्य। अर्चतः। मनीषाम्। कृष्व। दुवांसि। अन्तमा। सचा। इमा ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्यापकाऽध्येतारः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे परमविद्वँस्त्वं विपिपानस्याद्रेरिवार्चतो विप्रस्य हवं श्रुधि मनीषां बोधेमान्तमा दुवांसि सचा कृष्व ॥४॥

    पदार्थः

    (श्रुधि) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) शब्दसमूहम् (विपिपानस्य) विविधानि पानानि यस्मात् तस्य (अद्रेः) मेघस्येव (बोध) विजानीहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (विप्रस्य) मेधाविनः। (अर्चतः) सत्क्रियां कुर्वतः (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (कृष्व) कुरुष्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दुवांसि) परिचरणानि (अन्तमा) समीपस्थानि (सचा) सम्बन्धेन (इमा) इमानि ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जिज्ञासवो ! यूयं स्वकीयं पठितं परीक्षकाय विदुषे श्रावयन्तु तत्र ते यदुपदिशेयुस्तानि सततं सेवध्वम् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर पढ़ने-पढ़ानेवाले परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे परम विद्वान् ! आप (विपिपानस्य) विविध प्रकार के पीने जिस से बनें उस (अद्रेः) मेघ के समान (अर्चतः) सत्कार करते हुए (विप्रस्य) उत्तम बुद्धिवाले जन के (हवम्) शब्दसमूह को (श्रुधि) सुनो (मनीषाम्) उत्तम बुद्धि को (बोध) जानो और (इमा) इन (अन्तमा) समीपस्थ (दुवांसि) सेवनों को (सचा) सम्बन्ध करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे जिज्ञासु विद्यार्थी जनो ! तुम अपना पढ़ा हुआ परीक्षा लेनेवाले विद्वान् को सुनाओ, वहाँ वे जो उपदेश करें, उनका निरन्तर सेवन करो ॥४॥

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    विषय

    मेघ के जलपानवत् ज्ञानार्जन ।

    भावार्थ

    (वि-पिपानस्य) विविध प्रकार के रसों को अपने भीतर पालन करने वाले (अद्रे ) मेघ के समान नाना विद्याओं के रसों का पान या पालन करने वाले ( अद्रे ) आदर योग्य ( विप्रस्य ) मेधावी ( अर्चतः) अर्चना करने योग्य विद्वान् के ( हवम् ) उपदेश और ( मनीषाम् ) बुद्धि का ( बोध ) ज्ञान कर और ( इमा ) इन ( दुवांसि ) नाना सेवाओं को ( अन्तमा कृष्व ) समीप कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – भुरिगुष्णिक् । २, ७ निचृद्नुष्टुप् । ६ भुरिगनुष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । ६, ८ विराडनुष्टुप् । ४ आर्ची पंक्तिः । ९ विराट् त्रिष्टुप् ।। नवर्चं सूक्तम्

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    विषय

    मेघ के जलपानवत् ज्ञानार्जन

    पदार्थ

    पदार्थ- हे परमात्मन्! हम (वि-पिपानस्य) = विविध प्रकार के रसों के पालन करनेवाले (अद्रेः) = मेघ तुल्य नाना विद्याओं के रसों का पान करनेवाले (अद्रेः) = आदर योग्य (विप्रस्य) = मेधावी (अर्चतः) = पूज्य विद्वान् के (हवम्) = उपदेश और (मनीषाम्) = बुद्धि का बोध ज्ञान प्राप्त करें और (इमा) = इन (सचेमा दुवांसि) = नाना सेवाओं को (अन्तमा कृष्व) = आत्मसात् करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण करके मैं परमात्मा की स्तुति करता हूँ। हे प्रभु! आप मेरी बुद्धि वृद्धि में सहायक बनो।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे जिज्ञासू विद्यार्थ्यांनो ! तुम्ही अध्ययन केलेले सर्व परीक्षक असलेल्या विद्वानांना ऐकवा व ते जो उपदेश करतात त्याचा निरंतर स्वीकार करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Listen to the cloud shower of exhortation from the vibrant sage, joyous participant in the congregation, know the thought and will of the wise scholar in adoration of your honour, and honour these prayers, most sincere and intimate, in action.

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