ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
प्र वा॑वृजे सुप्र॒या ब॒र्हिरे॑षा॒मा वि॒श्पती॑व॒ बीरि॑ट इयाते। वि॒शाम॒क्तोरु॒षसः॑ पू॒र्वहू॑तौ वा॒युः पू॒षा स्व॒स्तये॑ नि॒युत्वा॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । व॒वृजे॒ । सु॒ऽप्र॒या । ब॒र्हिः । ए॒षा॒म् । आ । वि॒श्पती॑ इ॒वेति वि॒श्पती॑ऽइव । बीरि॑टे । इ॒या॒ते॒ इति॑ । वि॒शाम् । अ॒क्तोः । उ॒षसः॑ । पू॒र्वऽहू॑तौ । वा॒युः । पू॒षा । स्व॒स्तये॑ । नि॒युत्वा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वावृजे सुप्रया बर्हिरेषामा विश्पतीव बीरिट इयाते। विशामक्तोरुषसः पूर्वहूतौ वायुः पूषा स्वस्तये नियुत्वान् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ववृजे। सुऽप्रया। बर्हिः। एषाम्। आ। विश्पती इवेति विश्पतीऽइव। बीरिटे। इयाते इति। विशाम्। अक्तोः। उषसः। पूर्वऽहूतौ। वायुः। पूषा। स्वस्तये। नियुत्वान् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
यौ स्त्रीपुरुषौ बीरिटे सूर्याचन्द्रमसाविवेयाते विश्पतीवाक्तोरुषसः पूर्वहूतावियाते पूषा वायुरिव नियुत्वानीश्वरो विशां स्वस्तयेऽस्तु एषां मध्यात् यः कश्चित्सुप्रया बर्हिरा प्र वावृजे तान् सर्वान् सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥२॥
पदार्थः
(प्र) (वावृजे) व्रजति (सुप्रयाः) यस्सर्वान् सुष्ठु प्रीणाति (बर्हिः) उत्तमं सर्वेषां वर्धकं कर्म (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (आ) समन्तात् (विश्पतीव) विशां प्रजानां पालको राजेव (बीरिटे) अन्तरिक्षे (इयाते) गच्छतः (विशाम्) प्रजानाम् (अक्तोः) रात्रेः (उषसः) दिवसस्य (पूर्वहूतौ) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतायां स्तुतौ (वायुः) प्राण इव (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (स्वस्तये) सुखाय (नियुत्वान्) नियन्तेश्वरः ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सदैव यौ स्त्रीपुरुषौ न्यायकारिराजवत् प्रजापालनमीश्वरवन्न्यायाचरणं वायुवत् प्रियप्रापणं संन्यासिवत्पक्षपातमोहादिदोषरहितौ स्यातां तौ सर्वार्थसिद्धौ भवेताम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो स्त्री-पुरुष (बीरिटे) अन्तरिक्ष में सूर्य और चन्द्रमा के समान (इयाते) जाते हैं (विश्पतीव) वा प्रजा पालनेवाले राजा के समान (अक्तोः) रात्रि की (उषसः) और दिन की (पूर्वहूतौ) अगले विद्वानों ने की स्तुति के निमित्त जाते हैं वा (पूषा) पुष्टि करनेवाले (वायुः) प्राण के समान (नियुत्वान्) नियमकर्ता ईश्वर (विशाम्) प्रजाजनों के (स्वस्तये) सुख के लिये हो (एषाम्) इन में से जो कोई (सुप्रयाः) सब को अच्छे प्रकार तृप्त करता है वा (बर्हिः) उत्तम सब का बढ़ानेवाला कर्म(आ, प्र, वावृजे) सब ओर से अच्छे प्रकार प्राप्त होता है, उन सब का सब सत्कार करें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सदैव जो स्त्री-पुरुष न्यायकारी राजा के समानप्रजा पालना, ईश्वर के समान न्यायाचरण, पवन के समान प्रिय पदार्थ पहुँचाना और संन्यासी के तुल्य पक्षपात और मोहादि दोष त्याग करनेवाले होते हैं, वे सर्वार्थ सिद्ध हों ॥२॥
विषय
स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( एषाम् ) इन प्रजाजनों के बीच (सु-प्रयाः ) उत्तम अन्नादि सम्पन्न, उत्तम रीति से प्रसन्न तृप्त करने वाला (बर्हि:) उनको बढ़ाने और स्वयं बढ़ने वाला पुरुष ही उनको ( प्र वावृजे) उत्तम मार्ग से गमन करावे । (एषाम् ) इनके बीच स्त्री पुरुष दोनों (वीरिटे) अन्तरिक्ष में सूर्य चन्द्र के समान (विश्पती इव) प्रजापालक राजा रानी के तुल्य ( इयाते ) व्यवहार करें । ( अक्तोः उषसः पूर्वहूतौ ) रात्रि और दिन दोनों के पूर्वा गमन-काल में ( वायुः ) वायु के समान प्राण प्रिय और ( पूषा ) पृथ्वी के समान पोषक स्त्री और पुरुष ( नियुत्वान् ) नियुक्त भृत्यादि के स्वामी होकर ( विशाम् स्वस्तये ) प्रजाओं के कल्याण के लिये कार्य करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम ॥
विषय
प्रजाओं का कल्याण
पदार्थ
पदार्थ- (एषाम्) = इन प्रजाओं के बीच (सु-प्रथाः) = उत्तम अन्नादि- सम्पन्न, तृप्त करनेवाला (बर्हिः) = उसको बढ़ानेवाला पुरुष ही उनको (प्र वावृजे) = उत्तम मार्ग से चलावे। (एषाम्) = इनमें स्त्रीपुरुष दोनों (वीरिटे) = अन्तरिक्ष में सूर्य, चन्द्र के समान (विश्पती इव) = प्रजा-पालक राजा-रानी के तुल्य (हयाते) = व्यवहार करें। (अक्तोः उषसः पूर्वहूतौ) = रात्रि और दिन के पूर्वागमन काल में (वायुः) = वायु-तुल्य प्राण - प्रिय और (पूषा) = पृथ्वी-तुल्य पोषक स्त्री-पुरुष (नियुत्वान्) = नियुक्त भृत्यादि के स्वामी होकर (विशाम् स्वस्तये) = प्रजाओं के कल्याणार्थ कार्य करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा और रानी प्रजा जनों को उत्तम अन्नादि तथा आने-जाने के साधन प्रदान करें। नौकर तथा नौकरानियों सहित समस्त प्रजाओं के कल्याण के कार्य करें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे स्त्री, पुरुष सदैव न्यायी, राजाप्रमाणे प्रजेचे पालनकर्ते, ईश्वराप्रमाणे न्यायी, वायूप्रमाणे प्रिय पदार्थ वहन करणारे, संन्याशाप्रमाणे पक्षपात व मोह इत्यादी दोषांचा त्याग करणारे असतात ते सर्वार्थाने सिद्ध असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The yajna of these people proceeds, richly provided with holy materials. Vayu and Pusha, wind and life-giving sun, like guardian rulers and protectors of the people, move across the skies as if riding a chariot drawn by horses at the sacred call of night and dawn to yajna early for the good of humanity.
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