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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज्म॒या अत्र॒ वस॑वो रन्त दे॒वा उ॒राव॒न्तरि॑क्षे मर्जयन्त शु॒भ्राः। अ॒र्वाक्प॒थ उ॑रुज्रयः कृणुध्वं॒ श्रोता॑ दू॒तस्य॑ ज॒ग्मुषो॑ नो अ॒स्य ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्म॒याः । अत्र॑ । वस॑वः । र॒न्त॒ । दे॒वाः । उ॒रौ । अ॒न्तरि॑क्षे । म॒र्ज॒य॒न्त॒ । शु॒भ्राः । अ॒र्वाक् । प॒थः । उ॒रु॒ऽज्र॒यः॒ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । श्रोता॑ । दू॒तस्य॑ । ज॒ग्मुषः॑ । नः॒ । अ॒स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्मया अत्र वसवो रन्त देवा उरावन्तरिक्षे मर्जयन्त शुभ्राः। अर्वाक्पथ उरुज्रयः कृणुध्वं श्रोता दूतस्य जग्मुषो नो अस्य ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्मयाः। अत्र। वसवः। रन्त। देवाः। उरौ। अन्तरिक्षे। मर्जयन्त। शुभ्राः। अर्वाक्। पथः। उरुऽज्रयः। कृणुध्वम्। श्रोता। दूतस्य। जग्मुषः। नः। अस्य ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे उरुज्रयः शुभ्रा वसवो देवा ! यूयमुरावन्तरिक्षेऽत्र ज्मया रन्तार्वाक् पथो मर्जयन्तास्य दूतस्य नो जग्मुषः कृणुध्वमस्माकं विद्याः श्रोता ॥३॥

    पदार्थः

    (ज्मयाः) भूमेर्मध्ये (अत्र) अस्मिन् संसारे (वसवः) विद्यायां कृतवासाः (रन्त) रमन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (उरौ) बहुव्यापके (अन्तरिक्षे) आकाशे (मर्जयन्त) शोधयन्तु (शुभ्राः) शुद्धाचाराः (अर्वाक्) (पथः) मार्गान् (उरुज्रयः) बहुगन्तारः (कृणुध्वम्) (श्रोता) शृणुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दूतस्य) (जग्मुषः) गन्तॄन् प्राप्तान् वेदितॄन् (नः) अस्माकं अस्मान् वा (अस्य) ॥३॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यूयं धर्ममार्गान् शुद्धान् प्रचार्य्य दूतवत् सर्वत्र भ्रमणं कृत्वा धर्मं विस्तार्य सर्वान् मनुष्यान् प्राप्तविद्यासुखान् कुरुत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (उरुज्रयः) बहुत जाने और (शुभ्राः) शुद्ध आचरण करनेवाले (वसवः) विद्या में वास किये हुए (देवाः) विद्वान् जनो ! तुम (उरौ) बहुव्यापक (अन्तरिक्षे) आकाश में (अत्र) इस संसार में (ज्मयाः) भूमि के बीच (रन्त) रमें (अर्वाक्) पीछे (पथः) मार्गों को (मर्जयन्त) शुद्ध करो (अस्य) इस (दूतस्य) दूत को (नः) हम लोगों को (जग्मुषः) जाने, प्राप्त होने वा जाननेवाले (कृणुध्वम्) करो और हमारी विद्याओं को (श्रोता) सुनो ॥३॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! तुम धर्ममार्गों को शुद्ध प्रकाशित कर दूत के समान सब जगह घूम, धर्म का विस्तार कर सब मनुष्यों को विद्या सुखयुक्त करो ॥३॥

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वसवः ) राष्ट्र में बसे जनो ! ( अत्र ) इस राष्ट्र में आप लोग ( उमयाः ) भूमि के बीच में ( रमन्त ) आनन्द प्रसन्न रहो । हे ( शुभ्राः ) सुशोभित ( देवाः ) स्त्री पुरुषो ! आप ( उरौ ) विशाल ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में नक्षत्रों या वायुओं के तुल्य ( मर्जयन्त ) सब व्यवहारों को स्वच्छ शुद्ध करो । हे ( उरु-ज्रयः) बड़े २ मार्गों के ऊपर चलने हारे आप लोग ( अर्वाक् ) हमारी ओर ( पथ: ) अपने गन्तव्य ( मार्गं कृणुध्वं ) मार्ग बनावें । (जग्मुषः) जाने वाले आप लोगों के प्रति ( नः ), हमारे ( अस्यदूतस्य ) इस दूत के वचनों को ( श्रोत ) श्रवण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम ॥

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    विषय

    वायु तथा सड़क मार्गों की व्यवस्था

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (वसवः) = राष्ट्रवासी जनो! (अत्र) = इस राष्ट्र में आप लोग (ज्मयाः) = भूमि के मध्य (रमन्त) = प्रसन्न रहो। हे (शुभ्राः) = सुशोभित (देवाः) = स्त्री-पुरुषो! आप (उरौ) = विशाल (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में वायु-तुल्य (मर्जयन्त) = व्यवहारों को शुद्ध करो। हे (उरु-ज्रयः) = बड़े-बड़े मार्गों पर चलनेहारे ! आप (अर्वाक्) = हमारी ओर (पथः) = गन्तव्य (मार्ग कृणुध्वं) = मार्ग बनावें । (जग्मुषः) = जानेवाले आप लोगों के प्रति (नः) = हमारे (अस्य दूतस्य) = इस दूत के वचनों को (श्रोत) = सुनो।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को चाहिए कि वह राष्ट्र की प्रजा के लिए आकाश मार्ग वायुयान आदि से आने-जाने की व्यवस्था करे। बड़े-बड़े भूमि पर चलने हेतु राजमार्गों की भी व्यवस्था करे। अर्थात् बनावे परिवहन व्यवस्था सुचारु ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! तुम्ही शुद्ध धर्ममार्गाने सर्वत्र दूताप्रमाणे फिरून धर्माचा विस्तार करा व सर्व माणसांना विद्या व सुखाने युक्त करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the Vasus, life giving energies of nature, and enlightened people settled at peace in learning, abound and rejoice here on earth. Let radiant purities of divine refulgence from yajna rise to the vast sky and purify the atmosphere. Let divine energies of vast extension receive and respond to this yajnic code of our participation in nature’s dynamics and converge on this way to our earth.

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