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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    र॒रे ह॒व्यं म॒तिभि॑र्य॒ज्ञिया॑नां॒ नक्ष॒त्कामं॒ मर्त्या॑ना॒मसि॑न्वन्। धाता॑ र॒यिम॑विद॒स्यं स॑दा॒सां स॑क्षी॒महि॒ युज्ये॑भि॒र्नु दे॒वैः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒रे । ह॒व्यम् । म॒तिऽभिः॑ । य॒ज्ञिया॑नाम् । नक्ष॑त् । काम॑म् । मर्त्या॑नाम् । असि॑न्वन् । धाता॑ । र॒यिम् । अ॒वि॒ऽद॒स्यम् । स॒दा॒ऽसाम् । स॒क्षी॒महि॑ । युज्ये॑भिः । नु । दे॒वैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ररे हव्यं मतिभिर्यज्ञियानां नक्षत्कामं मर्त्यानामसिन्वन्। धाता रयिमविदस्यं सदासां सक्षीमहि युज्येभिर्नु देवैः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ररे। हव्यम्। मतिऽभिः। यज्ञियानाम्। नक्षत्। कामम्। मर्त्यानाम्। असिन्वन्। धाता। रयिम्। अविऽदस्यम्। सदाऽसाम्। सक्षीमहि। युज्येभिः। नु। देवैः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    ये मतिभिर्युज्येभिर्देवैस्सह यज्ञियानां मर्त्यानां हव्यं काममसिन्वन् यमविदस्यं सदासां रयिं धात य एतैस्सहैतं नक्षत् तमहं ररे वयमेतैस्सहैतं नु सक्षीमहि ॥६॥

    पदार्थः

    (ररे) दद्याम् (हव्यम्) ग्रहीतुमर्हम् (मतिभिः) प्राज्ञैर्मनुष्यैः सह (यज्ञियानाम्) यज्ञसम्पादकानाम् (नक्षत्) प्राप्नोति (कामम्) (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (असिन्वन्) बध्नन्ति (धाता) दधाति। अत्र द्व्यच० इति दीर्घः। (रयिम्) धनम् (अविदस्यम्) अक्षीणम् (सदासाम्) सदा संसेवनीयम् (सक्षीमहि) प्राप्नुयाम (युज्येभिः) योक्तुमर्हैः (नु) क्षिप्रम् (देवैः) विद्वद्भिः सह ॥६॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसोऽन्येषां मनुष्याणां काममलं कुर्वन्ति ते पूर्णकामा भवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (मतिभिः) प्राज्ञ मनुष्यों के साथ वा (युज्येभिः) योग करने योग्य (देवैः) विद्वानों के साथ (यज्ञियानाम्) यज्ञ सम्पादन करनेवाले (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य (कामम्) काम को (असिन्वन्) निबन्ध करते हैं जिस (अविदस्यम्) अक्षीण विनाशरहित (सदासाम्) सदैव अच्छे प्रकार सेवने योग्य (रयिम्) धन को (धात) धारण करते हैं वा जो इन के साथ उस को (नक्षत्) व्याप्त होता है उस को मैं (ररे) देऊँ हम सब लोग इन के साथ उस को (नु) शीघ्र (सक्षीमहि) व्याप्त होवें ॥६॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जिन मनुष्यों का काम पूरा करते हैं, वे पूर्णकाम होते हैं ॥६॥

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    भावार्थ

    मैं ( यज्ञियान्) यज्ञ के योग्य, पूजा सत्कारोचित जनों के ( हव्यं ) योग्य अन्नादि ग्राह्य पदार्थों को ( मतिभिः ) सद् बुद्धियों और ज्ञानवान् पुरुषों से प्रेरित होकर ( ररे ) दिया करूं । ( यज्ञियानां मर्त्यानाम् ) आदर योग्य मनुष्यों की भी (कामं) अभिलाषा को ( नक्षत् ) प्राप्त होओ । जो विद्वान् लोग (असिन्वन्) हमें प्रेमादि से बांधते हैं उन ( युज्येभिः ) सदा सहयोगी ( देवैः ) विद्वानों के साथ ( सक्षीमहि ) मिल जुल कर रहें । और हे विद्वान् जनो ! आप लोग (सदासां) सदा सेवन करने योग्य ( अविदस्यं ) अविनाशी ( रयिम् ) ऐश्वर्य को (धात ) धारण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम ॥

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    विषय

    विद्वानों का संग

    पदार्थ

    पदार्थ- मैं (यज्ञियानाम्) = सत्कारोचित जनों के योग्य (हव्यं) = अन्नादि पदार्थों को (मतिभिः) = बुद्धियों और ज्ञानी पुरुषों से प्रेरित होकर (ररे) = दिया करूँ। (यज्ञियानां मर्त्यानाम्) = आदर- योग्य मनुष्यों की भी (कामं) = अभिलाषा को (नक्षत्) = प्राप्त होओ। जो विद्वान् (असिन्वन्) = हमें प्रेमादि से बाँधते हैं उन (युज्येभिः) = सहयोगी (देवैः) = विद्वानों के साथ सक्षीमहि मिलकर रहें, हे विद्वान् जनो ! आप लोग (सदासां) = सदा सेवन-योग्य (अविदस्यं) = अविनाशी (रयिम्) = ऐश्वर्य को (धात) = धारण करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रजाजन पूजा के योग्य विद्वान् पुरुषों को अन्नादि से तृप्त कर उनसे ज्ञान तथा सद्प्रेरणाएँ प्राप्त करें। विद्वानों के संग से भौतिक तथा आध्यात्मिक ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान इतरांचे काम पूर्ण करतात ते पूर्ण काम असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us offer oblations of holy materials to Agni with the thoughts and words of adorable sages so that the desires of mortals bound in love may be fulfilled. May the lord ruler of the world bring us imperishable wealth of universal value, and may we join with brilliant people worthy of association.

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