ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
ते हि य॒ज्ञेषु॑ य॒ज्ञिया॑स॒ ऊमाः॑ स॒धस्थं॒ विश्वे॑ अ॒भि सन्ति॑ दे॒वाः। ताँ अ॑ध्व॒र उ॑श॒तो य॑क्ष्यग्ने श्रु॒ष्टी भगं॒ नास॑त्या॒ पुरं॑धिम् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठते । हि । य॒ज्ञेषु॑ । य॒ज्ञिया॑सः । ऊमाः॑ । स॒धऽस्थ॑म् । विश्वे॑ । अ॒भि । सन्ति॑ दे॒वाः । तान् । अ॒ध्व॒रे । उ॒श॒तः । य॒क्षि॒ । अ॒ग्ने॒ । श्रु॒ष्टी । भग॑म् । नास॑त्या । पुर॑म्ऽधिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि यज्ञेषु यज्ञियास ऊमाः सधस्थं विश्वे अभि सन्ति देवाः। ताँ अध्वर उशतो यक्ष्यग्ने श्रुष्टी भगं नासत्या पुरंधिम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठते। हि। यज्ञेषु। यज्ञियासः। ऊमाः। सधऽस्थम्। विश्वे। अभि। सन्ति देवाः। तान्। अध्वरे। उशतः। यक्षि। अग्ने। श्रुष्टी। भगम्। नासत्या। पुरम्ऽधिम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः कीदृशाः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
ते हि यज्ञियास ऊमा विश्वे देवा यज्ञेष्वभि सन्ति तानध्वरे सधस्थमुशतो विदुषोऽहं यक्षि यौ नासत्या पुरन्धिं भगं श्रुष्टी दद्यातां तौ यथाऽहं यक्षि तथा हे अग्ने ! त्वमप्येतान् यज ॥४॥
पदार्थः
(ते) (हि) यतः (यज्ञेषु) विद्यादानाऽदानादिव्यवहारेषु (यज्ञियासः) यज्ञसिद्धिकराः (ऊमाः) रक्षादिकर्तारः (सधस्थम्) समानस्थानम् (विश्वे) सर्वे (अभि) आभिमुख्ये (सन्ति) (देवाः) विद्वांसः (तान्) (अध्वरे) अहिंसनीये व्यवहारे (उशतः) कामयमानान् (यक्षि) सङ्गमयेयम् (अग्ने) विद्वन् (श्रुष्टी) क्षिप्रम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (नासत्या) अविद्यमानासत्यव्यवहारावध्यापकोपदेशकौ (पुरन्धिम्) बहूनां सुखानां धर्तारम् ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये सत्यविद्याधर्मप्रकाशका वेदविदः अध्यापकोपदेशका विद्वांसो जगति सर्वान् मनुष्यादीन्नुन्नयन्ति ते हि सर्वदा सर्वथा सर्वैस्सत्कर्तव्या भवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् कैसे हों और क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(ते) वे (हि) ही (यज्ञियासः) यज्ञ सिद्ध करने (ऊमाः) और रक्षा करनेवाले (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् (यज्ञेषु) विद्या देने न देने के व्यवहारों में (अभि, सन्ति) सम्मुख वर्त्तमान हैं (तान्) उन (अध्वरे) अहिंसनीय व्यवहार में (सधस्थम्) एक स्थान को (उशतः) चाहनेवाले विद्वानों को मैं (यक्षि) मिलूँ जो (नासत्या) असत्यव्यवहाररहित अध्यापक और उपदेशक (पुरन्धिम्) बहुत सुखों के धारण करनेवाले (भगम्) ऐश्वर्य को (श्रुष्टी) शीघ्र देवें, जैसे मैं मिलूँ, वैसे ही हे (अग्ने) विद्वान् ! आप भी इन को मिलो ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सत्यविद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले वेदवेत्ता अध्यापक, उपदेशक, विद्वान् सब मनुष्य आदि की उन्नति करते हैं, वे ही सर्वदा सर्वथा सब को साकार करने योग्य होते हैं ॥४॥
विषय
सभास्थ सदस्यों को आदर।
भावार्थ
( ते ) वे ( ऊमाः ) रक्षक ( देवाः ) विद्वान् पुरुष (विश्वे), समस्त ( यज्ञियासः ) यज्ञ के करने वाले ( यज्ञेषु ) हमारे यज्ञों में ( हि ) अवश्य ( सधस्थं अभि सन्ति ) एक साथ विराजने योग्य सभा: स्थान में प्राप्त हों । हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! ( तान् उशतः ) उन चाहने वाले पुरुषों और ( भगं) ऐश्वर्यवान्, ( नासत्या ) कभी असत्य भाषण न करने वाले, सत्याचारी पुरुषों और ( पुरन्धिम् ) बहुत सुखों के धारक, वा पुर के रक्षक आदि जनों को ( श्रुष्टी ) शीघ्र ही ( यक्षि ) आदर सत्कार किया कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम ॥
विषय
बड़ों का आदर करो
पदार्थ
पदार्थ - (ते) = वे (ऊमाः) = रक्षक (देवाः) = विद्वान् (विश्वे) = समस्त (यज्ञियासः) = यज्ञकर्ता (यज्ञेषु) = यज्ञों में (हि) = अवश्य (सधस्थं अभि सन्ति) = साथ बैठने योग्य सभा-स्थान में प्राप्त हों। हे (अग्ने) = तेजस्विन् ! (तान् उशतः) = उन चाहनेवाले पुरुषों और (भगं) = ऐश्वर्यवान्, (नासत्वा) = कभी असत्य न करनेवाले पुरुषों और (पुरन्धिम्) = सुखों के धारक, वा पुर-रक्षक को (श्रुष्टी) = शीघ्र ही (यक्षि) = सत्कार कर ।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र में यज्ञों का प्रचलन बढ़े इसके लिए विद्वान् पुरुष समस्त यज्ञ करनेवालों को यज्ञ का प्रशिक्षण देवें। यज्ञों में विद्वान् जनों तथा सत्यवादी पुरोहितों का खूब आदर सम्मान होवे ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे सत्यविद्या व धर्माचे प्रकाशक वेदवेत्ते, अध्यापक, उपदेशक, विद्वान सर्व माणसांची उन्नती करतात तेच सदैव सर्वांकडून सत्कार घेण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All those divinities of the world, adorable and conjoined in nature’s dynamics of cosmic yajna, are catalytic agents of protection and promotion keenly concentrative toward life’s evolution and advancement. O generous yajamana, O bright fire, keen and passionate as they are in yajna, join them in yajna right away: join Bhaga, universal treasure of wealth, honour and excellence, Nasatya, constant complementarities of nature and natural law, and Purandhi, keeper and protector of habitations and institutions.
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