ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
ए॒ते त्ये भा॒नवो॑ दर्श॒ताया॑श्चि॒त्रा उ॒षसो॑ अ॒मृता॑स॒ आगु॑: । ज॒नय॑न्तो॒ दैव्या॑नि व्र॒तान्या॑पृ॒णन्तो॑ अ॒न्तरि॑क्षा॒ व्य॑स्थुः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । त्ये । भा॒नवः॑ । द॒र्श॒तायाः॑ । चि॒त्राः । उ॒षसः॑ । अ॒मृता॑सः । आ । अ॒गुः॒ । ज॒नय॑न्तः । दैव्या॑नि । व्र॒तानि । आ॒ऽपृ॒णन्तः॑ । अ॒न्तरि॑क्षा । वि । अ॒स्थुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते त्ये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अमृतास आगु: । जनयन्तो दैव्यानि व्रतान्यापृणन्तो अन्तरिक्षा व्यस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठएते । त्ये । भानवः । दर्शतायाः । चित्राः । उषसः । अमृतासः । आ । अगुः । जनयन्तः । दैव्यानि । व्रतानि । आऽपृणन्तः । अन्तरिक्षा । वि । अस्थुः ॥ ७.७५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उषसः) प्रातःकालस्योषसः (चित्राः) ये चित्राः (दर्शतायाः) दृष्टिगता भवन्ति (एते त्ये) ते सर्वे (भानवः) सूर्यस्य रश्मिभिः (अमृतासः) अमृतभावं (आ अगुः) साधु प्राप्नुवन्ति तथा च (दैव्यानि) दिव्यभावान् (जनयन्तः) उत्पादयन्तः (अन्तरिक्षा वि अस्थुः) एकस्मिन्नेवान्तरिक्षेऽनेकधा स्थित्वा (व्रतानि आपृणन्तः) व्रतानि धारयन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उषःकाल में जागृतिवाले पुरुष के लिये फल कथन करते हैं।
पदार्थ
(उषसः) प्रातःकाल की उषा के (चित्राः) जो चित्र (दर्शतायाः) दृष्टिगत होते हैं, (एते त्ये) वे सब (भानवः) सूर्य्य की रश्मियों द्वारा (अमृतासः) अमृतभाव को (आ अगुः) भले प्रकार प्राप्त होते हैं और (दैव्यानि) दिव्य भावों को (जनयन्तः) उत्पन्न करते हुए (अन्तरिक्षा वि अस्थुः) एक ही अन्तरिक्ष में बहुत प्रकार से स्थिर होकर (व्रतानि आपृणन्तः) व्रतों को धारण करते हैं ॥३॥
भावार्थ
“उषा” सूर्य्य की रश्मियों का एक पुञ्ज है। जब वे रश्मियाँ इकठ्ठी होकर पृथिवीतल पर पड़ती हैं, तब एक प्रकार का अमृतभाव उत्पन्न करती हुई कई प्रकार के व्रत धारण कराती हैं अर्थात् नियमपूर्वक सन्ध्या करनेवाले उषःकाल में सन्ध्या के व्रत को और नियम से हवन करनेवाले हवनव्रत को धारण करते हैं। इसी प्रकार सूर्य्योदय होने पर प्रजाजन नानाप्रकार के व्रत धारण करके अमृतभाव को प्राप्त होते हैं, अत एव मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रातः उषःकाल में अपने व्रतों को पूर्ण करे, व्रतों का पूर्ण करना ही अमृतभाव को प्राप्त होना है ॥ या यों कहो कि जिस प्रकार विराट् स्वरूप में सूर्य्य-चन्द्रमादि अपने उदय-अस्तरूप व्रतों को नियमपूर्वक पालन करते हैं, इसी प्रकार अमृतभाव को प्राप्त होनेवाले जिज्ञासु को अपने व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। जो उषःकाल में उठकर अपने नियम-व्रतों का पालन करते हैं, वे ही अमृत को प्राप्त होकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य नहीं ॥३॥
विषय
उषा के नाना दृष्टान्तों से उत्तम स्त्री वा वधू के कर्त्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( दर्शताः उषसः भानवः ) दर्शनीय उषा वेला के किरण जिस प्रकार आते हैं, वे (दैव्यानि व्रतानि जनयन्तः अन्तरिक्षा वि तिष्ठन्ति) देव, सूर्य वा किरणों के योग्य प्रकाशादि कार्यों को करते हुए अन्तरिक्ष में विराजते हैं, उसी प्रकार ( दर्शतायाः ) रूप गुणादि में दर्शनीय, अति मनोहर ( उषसः ) पति की कामना करने वाली, कान्तिमती कन्या वा विदुषी स्त्री से ही ( त्ये ) वे नाना ( एते ) ये ( अमृतासः भानवः ) कभी नाश न होने वाले, दीर्घायु, ( चित्राः ) आश्चर्यकारी बलवान् वीर्यवान् होकर ( आगुः ) हमें प्राप्त होते हैं । वे ( दैव्यानि) देव, विद्वान् पुरुषों से करने योग्य ( व्रतानि ) कर्त्तव्य कर्मों को ( जनयन्तः ) प्रकट करते हुए, ( अन्तरिक्षा ) अन्तरिक्ष में वायु के समान ( आ पृणन्तः ) सबको पालन पूर्ण, तृप्त, सन्तुष्ट करते हुए ( वि अस्थुः ) विविध रूपों में विराजें। उत्तम स्त्री से उत्पन्न हुए पुत्र दीर्घजीवी, तेजस्वी, देव, व्रतपालक और सुखकारी हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पत्नि के कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- (दर्शताः उषस: भानव:) = दर्शनीय उषा वेला की किरण जैसे आती हैं, वे (दैव्यानि व्रतानि जनयन्तः अन्तरिक्षा वि तिष्ठन्ति) = देव, सूर्य वा किरणों के योग्य प्रकाशादि कार्यों को करते हुए अन्तरिक्ष में विराजती हैं, वैसे ही (दर्शताया:) = रूप-गुणादि में दर्शनीय (उषसः) = पति की कामनावाली, कान्तिमती कन्या वा विदुषी स्त्री से ही (त्ये) = ये नाना (एते) = ये (अमृतासः भानवः) = कभी नाश न होनेवाले, दीर्घायु, (चित्रा:) = आश्चर्यकारी बलवान् वीर्यवान् होकर (आगुः) = हमें प्राप्त होते हैं। वे (दैव्यानि) = विद्वान् पुरुषों से करने योग्य (व्रतानि) = कर्मों को (जनयन्तः) = प्रकट करते हुए, (अन्तरिक्षा) = अन्तरिक्ष में वायु के समान (आ पृणन्तः) = सबको तृप्त करते हुए (वि अस्थुः) = विविध रूपों में विराजें।
भावार्थ
भावार्थ- विदुषी स्त्री दूर देश में रहनेवाले श्रेष्ठ शासक से उत्तम रीति से विवाह करके अपने विद्वत्ता, प्रियता आदि गुणों के द्वारा समस्त परिजनों व प्रजाजनों को वश में करके उत्तम ज्ञान और कर्मों के द्वारा प्रजा पालन के कार्य में पति को सहयोग व सम्मति प्रदान करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
These are radiations of light divine at the break of dawn, wonderful, sublime and immortal that come and inspire, creating a deep sense of awareness of the ways and disciplines of life divine. They radiate through the cosmic spaces out and vibrate in the space within in the heart and abide in the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
‘उषा’ हा सूर्य रश्मींचा एक पुंज आहे. जेव्हा या रश्मी एकत्र होऊन पृथ्वीवर पडतात तेव्हा एक प्रकारचा अमृतभाव उत्पन्न करून कित्येक प्रकारचे व्रत धारण करवितात. अर्थात, नियमपूर्वक संध्या करणारे उष:काली संध्येचे व्रत व नियमाने हवन करणारे हवनाचे व्रत धारण करतात. या प्रकारे सूर्योदय झाल्यावर प्रजेला नाना प्रकारचे व्रत धारण करून अमृत भाव प्राप्त होतो. त्यासाठी माणसाचे हे कर्तव्य आहे, की त्याने उष:काली आपले व्रत पूर्ण करावे. व्रत पूर्ण करणेच अमृतभाव प्राप्त करणे होय.
टिप्पणी
ज्या प्रकारे विराटस्वरूपात सूर्य, चंद्र इत्यादी आपल्या उदय-अस्त रूप व्रतांचे नियमपूर्वक पालन करतात. याच प्रकारे अमृतभाव प्राप्त करणाऱ्या जिज्ञासूंनी आपल्या व्रतांचे नियमपूर्वक पालन करावे. जे उष:काळी उठून आपल्या नियम व्रतांचे पालन करतात तेच अमृत प्राप्त करून सुखपूर्वक आपले जीवन व्यतीत करतात, इतर नव्हे. ॥३॥
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