ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 5
वा॒जिनी॑वती॒ सूर्य॑स्य॒ योषा॑ चि॒त्राम॑घा रा॒य ई॑शे॒ वसू॑नाम् । ऋषि॑ष्टुता ज॒रय॑न्ती म॒घोन्यु॒षा उ॑च्छति॒ वह्नि॑भिर्गृणा॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒जिनी॑ऽवती । सूर्य॑स्य । योषा॑ । चि॒त्रऽम॑घा । रा॒यः । ई॒शे॒ । वसू॑नाम् । ऋषि॑ऽस्तुता । ज॒रय॑न्ती । म॒घोनी॑ । उ॒षाः । उ॒च्छ॒ति॒ । वह्नि॑ऽभिः । गृ॒णा॒ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजिनीवती सूर्यस्य योषा चित्रामघा राय ईशे वसूनाम् । ऋषिष्टुता जरयन्ती मघोन्युषा उच्छति वह्निभिर्गृणाना ॥
स्वर रहित पद पाठवाजिनीऽवती । सूर्यस्य । योषा । चित्रऽमघा । रायः । ईशे । वसूनाम् । ऋषिऽस्तुता । जरयन्ती । मघोनी । उषाः । उच्छति । वह्निऽभिः । गृणाना ॥ ७.७५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उषाः) उषा देवी अन्नादिपदार्थप्रदा (चित्रामघा) ऐश्वर्य्यवती (वसूनां रायः ईशे) सर्वस्वामिनी (वह्निभिः) स्वतेजोभिः (ऋषिष्टुता) ऋषिभिरीड्या (उच्छति) प्रकाशवती (जरयन्ती) तमांसि निवर्त्तयन् (सूर्यस्य योषा) आदित्यस्य स्त्रीभावं (गृणाना) गृह्णातीत्यर्थः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उषा को अन्नादि ऐश्वर्य्य की देनेवाली कथन करते हैं।
पदार्थ
(उषाः) यह उषा देवी (वाजिनीवती) अन्नादि पदार्थों के देनेवाली (चित्रामघा) नाना प्रकार के ऐश्वर्य्यवाली (वसूनां रायः ईशे) वसुओं के धन की स्वामिनी (मघोनी) ऐश्वर्य्यवाली (वह्निभिः) याज्ञिक कर्मों में प्रेरक (ऋषिस्तुता) ऋषियों द्वारा स्तुति को प्राप्त और (उच्छति) प्रकाश को प्राप्त होकर (जरयन्ती) अन्धकारादि दोषों को निवृत्त करती हुई (सूर्यस्य योषा) सूर्य्य के स्त्रीभाव को (गृणाना) ग्रहण करती है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में रूपकालङ्कार से उषा को सूर्य्य की स्त्री वर्णन किया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि प्रातःकाल पूर्वदिशा में जो रक्तवर्ण की दीप्ति सूर्योदय के समय उत्पन्न होती है, उसका नाम “उषा” है। द्युलोक उसका पितास्थानीय और सूर्य्य पतिस्थानीय माना गया है, क्योंकि वह द्युलोक में उत्पन्न होती और सूर्य्य उसका भोक्ता होने के कारण उसको पतिरूप से वर्णन किया गया है, या यों कहो कि सूर्य्य की रश्मिरूप उषा सूर्य्य की शोभा को बढ़ाती और सदैव उसके साथ रहने के कारण उसको योषारूप से वर्णन किया गया है और जो कई एक मन्त्रों में उषा को सूर्य्य की पुत्री वर्णन किया गया है, वह द्युलोक के भाव से है, सूर्य्य के अभिप्राय से नहीं ॥ तात्पर्य यह है कि यही “उषा” अन्नादि सब धनों के देनेवाली है, क्योंकि यही अन्धकार को दूर करके सब मनुष्यों को अपने-अपने काम में लगाती और यज्ञादि शुभ कार्य्य करने के लिए प्रेरणा करती है। ऋषि लोग प्रातःकाल में इसकी स्तुति करते हुए यज्ञादि कार्य्यों में प्रवृत्त होते और “सहस्रशीर्षादि” यजु० ३२।२॥ मन्त्रों में परमात्मा के विराट् स्वरूप का वर्णन करते हुए सर्व ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं, इसीलिए यहाँ उषा को विशेषरूप से वर्णन किया गया है ॥५॥
विषय
पक्षान्तर में सभा, सेनादि का वर्णन ।
भावार्थ
( सूर्यस्य ) सूर्य की ( योषा ) स्त्री ( उषा ) प्रभात वेला वह्निभिः ) यज्ञाग्नियों से ( गृणाना ) स्तुति की जाती हुई, (जरयन्ती) रात्रि का नाश करती हुई, ( ऋषि-स्तुता ) विद्वानों की भगवत्-स्तुति से होती है उसी प्रकार ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष युक्त की ( योषा ) स्त्री, ( उषा ) कान्ति से युक्त होकर ( वह्निभिः ) विवाह करने के योग्य उत्सुक पुरुषों द्वारा ( गृणाना ) स्तुति की जाती है । वह ज्ञानधारक विद्वान् पुरुषों से उपदेश की जावे । वह ( मघोनी ) उषावत् पूज्य धन से युक्त, (वाजिनीवती ) बलयुक्त और ज्ञानयुक्त क्रिया करने वाली ( जरयन्ती ) अपने गुणों से अवगुणों, अज्ञान शोक मोहादि को नाश करती हुई, (ऋषि-स्तुता) विद्वानों द्वारा उपदेश प्राप्त कर ( उच्छति ) अपने गुणों का प्रकाश करे । ( २ ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष की शक्ति, सेना और सभामयी है । वह बल, विजय युक्त होने से 'वाजिनी', नाना धन सम्पन्न होने से 'चित्रा-मघा' वह सब बसने वाले प्रजाजनों की स्वामिनी है, ऋषिगण, मन्त्रद्रष्टा ज्ञानी पुरुष उसको उपदेश करते, वह शत्रुओं का नाश करती, दुष्टों को सन्तप्त, पीड़ित करने से 'उषा', राज कार्य भार वहन करने वाले तेजस्वी पुरुषों से प्रशस्त है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्त्री के कर्त्तव्य ४
पदार्थ
पदार्थ- (सूर्यस्य) = जैसे सूर्य की (योषा) = स्त्री (उषा) = प्रभात वेला (वह्निभिः) = यज्ञाग्नियों से (गृणाना) = स्तुति की जाती हुई, (जरयन्ती) = रात्री का नाश करती हुई, (ऋषि-स्तुता) = विद्वानों की भगवत्-स्तुति से युक्त होती है, वैसे ही (सूर्यस्य) = सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष की (योषा) = स्त्री, (उषा) = कान्ति- युक्त होकर (वह्निभिः) = विवाह योग्य उत्सुक पुरुषों द्वारा (गृणाना) = स्तुति की जाती है। वह (मघोनी) = उषावत् पूज्य धन से युक्त, (वाजिनीवती) = बलयुक्त और ज्ञानयुक्त क्रिया करनेवाली (जरयन्ती) = गुणों से अवगुणों, अज्ञान, शोक, मोहादि को नाश करती हुई, (ऋषि-स्तुता) = विद्वानों द्वारा उपदेश प्राप्त कर (उच्छति) = गुणों का प्रकाश करे।
भावार्थ
भावार्थ-स्त्रियों को योग्य है कि वे विद्वान् गुरुजनों के उपदेशों से सद्गुणों को अपने जीवन में धारण करके तेजस्वी पुरुष से विवाह करे तथा अपने उत्तम गुणों से परिवार तथा प्रजा जनों के अज्ञान शोक, मोह आदि का नाश करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
The youthful light of the rising sun, inspiring and energising sustainer of life, commands the wealths of the world and rules the life and homes of people on earth. Studied and celebrated by sages and seers, seeing the devout rise in age and experience, the magnificent dawn shines on, adored by the yajakas when the fires of yajna are kindled early morning.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात रूपकालंकाराने उषेला सूर्याची स्त्री समजून वर्णन केलेले आहे. प्रात:काळी पूर्व दिशेला जी रक्तवर्णी दीप्ती सूर्योदयाच्या वेळी उत्पन्न होते, तिचे नाव उषा आहे. द्युलोक तिच्या पितृस्थानी व सूर्य पतीस्थानी मानलेला आहे. कारण ती द्युलोकापासून उत्पन्न होते व सूर्य तिचा भोक्ता असल्यामुळे त्याला पती म्हटलेले आहे. सूर्याची रश्मिरूपी उषा सूर्याची शोभा वाढविते व सदैव त्याच्याबरोबर राहण्याने तिचे योषारूपाने वर्णन केलेले आहे ते द्युलोकाच्या भावानेच आहे. सूर्याच्या भावाने नाही.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की हीच ‘उषा’ अन्न इत्यादी सर्व धन देणारी आहे. कारण ती अंधकार दूर करून सर्व माणसांना आपापल्या कामात लावते व यज्ञ इत्यादी शुभ कार्य करण्यासाठी प्रेरणा देते. ऋषी प्रात:काळी तिची स्तुती करीत यज्ञ इत्यादी कार्यात प्रवृत्त होतात व ‘सहस्रशीर्ष’ इत्यादी ॥यजु. ३२/२॥ मंत्रात परमात्म्याच्या विराटरूपाचे वर्णन करीत ऐश्वर्य प्राप्त करतात. त्यामुळे येथे उषेचे विशेष रूपाने वर्णन केलेले आहे. ॥५॥
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