ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 6
प्रति॑ द्युता॒नाम॑रु॒षासो॒ अश्वा॑श्चि॒त्रा अ॑दृश्रन्नु॒षसं॒ वह॑न्तः । याति॑ शु॒भ्रा वि॑श्व॒पिशा॒ रथे॑न॒ दधा॑ति॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । द्यु॒ता॒नाम् । अ॒रु॒षासः॑ । अश्वाः॑ । चि॒त्राः । अ॒दृ॒श्र॒न् । उ॒षस॑म् । वह॑न्तः । याति॑ । शु॒भ्रा । वि॒श्व॒ऽपिशा॑ । रथे॑न । दधा॑ति । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । जना॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति द्युतानामरुषासो अश्वाश्चित्रा अदृश्रन्नुषसं वहन्तः । याति शुभ्रा विश्वपिशा रथेन दधाति रत्नं विधते जनाय ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । द्युतानाम् । अरुषासः । अश्वाः । चित्राः । अदृश्रन् । उषसम् । वहन्तः । याति । शुभ्रा । विश्वऽपिशा । रथेन । दधाति । रत्नम् । विधते । जनाय ॥ ७.७५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उषसम्) उषःकालं (वहन्तः) दधानः सूर्य्यः (याति) गच्छति (शुभ्रा) शोभनेन (विश्वपिशा) सम्पूर्णसंसारस्यान्धकारनाशकेन (रथेन) वेगेन याति। अन्यच्च (जनाय) मनुष्याय (रत्नम्) धनं (विधते) योग्याय विभक्तरूपेण सम्पूर्णं प्रयच्छतीत्यर्थः। यस्मिन् सूर्य्ये (विचित्रा) नानावर्णवन्त्यः (अश्वाः) रश्मयः (अदृश्यन्) दृश्यन्ते ताः (प्रतिद्युतानाम्) प्रत्येकदीप्त्यर्थं (अरुषासः) प्रकाशं कुर्वत्यः ताश्च तदाश्रिता इत्यर्थः ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उषसं) उषःकाल को (वहन्तः) धारण करता हुआ सूर्य्य (विश्वपिशा) संसार के अन्धकार को मर्दन करनेवाले (शुभ्रा) सुन्दर (रथेन) वेग से (याति) गमन करता और (रत्नं दधाति) रत्नों को धारण करता हुआ (जनाय) मनुष्यों के लिए (विधते) विभाग करता है, (चित्राः अश्वाः) जिसमें विविध वेगवाली किरणें (अदृश्यन्) देखी जाती हैं और जो (प्रतिद्युतानां) प्रत्येक दीप्ति के लिए (अरुषासः) प्रकाश करनेवाली हैं ॥६॥
भावार्थ
उषःकाल का आश्रय सूर्य्य प्रत्यक्षरूप से नानाप्रकार की किरणों को धारण करता हुआ संसार में अव्याहतगति होकर विचरता और उसकी दीप्ति से नानाप्रकार के ऐश्वर्य्य प्राप्त होते हैं। इनको रत्नों का विभाग करनेवाला कथन किया गया है अर्थात् सूर्य्य के प्रकाश होने पर ही सब प्राणी वर्ग अपना-अपना भरण-पोषण करते और कर्मानुसार रत्नादि धनों की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं ॥६॥
विषय
उत्तम विवाह - विधि द्वारा स्त्री को स्वीकार करके पुत्रोत्पादन का उपदेश ।
भावार्थ
( अश्वाः ) अश्वों के समान दृढ़, बलवान् अंग वाले, ( चित्रा: ) पूजनीय, अद्भुत २ आश्चर्यजनक बलविद्या और गुणों से सम्पन्न, (अरुषास: रोषरहित, सौम्य स्वभाव वाले तेजस्वी, ( उषसः ) स्वयं भी उत्तम काम्य पदार्थों की कामना करने वाले पुरुष ( द्युतानां ) कान्तिमती, ( उषसम् ) कामनावान् उत्तम वधू का ( वहन्तः ) विवाह द्वारा ग्रहण करते हुए ( प्रति अदृश्रन् ) नित्य देखी जावें । वह वधू ( शुभ्रा ) उत्तम आभूषणों से सुभूषित, शुभगुणों से युक्त, वधू ( विश्वपिशा ) नाना रूप के (रथेन) रथों से (याति ) जावे । और ( विधते जनाय ) विशेष प्रेम से धारण करने वाले प्रिय, पुरुष के लिये ( रत्नं दधाति ) देह पर उत्तम रत्न, गृह में उत्तम धन, जीवन में उत्तम व्यवहार, मन में उत्तम गुण, गर्भ में उत्तम पुत्र-रत्न ( दधाति ) धारण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पुत्रोत्पत्ति का उपदेश
पदार्थ
पदार्थ- (अश्वाः) = अश्वसमान बलवान् अंगवाले, (चित्रा:) = आश्चर्यजनक बल और गुणों से सम्पन्न, (अरुषासः) = रोषरहित, सौम्यस्वभाव, (उषसः) = स्वयं उत्तम पदार्थों के इच्छुक पुरुष (द्युतानां) = कान्तिमती, (उषसम्) = कामनावान् उत्तम वधू को (वहन्ताः) = विवाह द्वारा ग्रहण करते हुए प्रति (अदृश्रन्) = देखे जावें। वह वधू (शुभ्रा) = शुभगुणों से सुभूषित, (विश्वपिशा) = नाना - रूप सुन्दर (रथेन) = रथ से (याति) = जावे और (विधते जनाय) = विशेष प्रेम के धारक पुरुष के लिये (रत्नं दधाति) = उत्तम रत्न, उत्तम धन, उत्तम व्यवहार, उत्तम गुण और उत्तम पुत्र रत्न (दधाति) = धारण करे।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले बलवान् पराक्रमी पुरुष को योग्य है कि वह कान्तियुक्त उत्तम स्त्री से विवाह करके शुभ गुणयुक्त उत्तम पुत्र को उत्पन्न करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
The radiations of light carrying the glorious dawn shine in splendour of various and wondrous rays and appear like steeds of the celestial chariot by which the heavenly maiden goes forward on her journey of light dispelling darkness of the world and bears and brings the jewels of wealth for the people.
मराठी (1)
भावार्थ
उष:कालाचा आश्रय असलेला सूर्य प्रत्यक्षरूपाने नाना प्रकारची किरणे धारण करून जगात अव्याहत गतीने विचरण करतो व त्याच्या दीप्तीने विविध प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त होते. त्याला रत्नांचे विभाजन करणारा असे म्हटलेले आहे. अर्थात, सूर्याचा प्रकाश पसरल्यावरच सर्व प्राणी आपापले भरणपोषण करतात व कर्मानुसार रत्न इत्यादी धनप्राप्तीमध्ये प्रवृत्त होतात. ॥६॥
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