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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त स्वया॑ त॒न्वा॒३॒॑ सं व॑दे॒ तत्क॒दा न्व१॒॑न्तर्वरु॑णे भुवानि । किं मे॑ ह॒व्यमहृ॑णानो जुषेत क॒दा मृ॑ळी॒कं सु॒मना॑ अ॒भि ख्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्वया॑ । त॒न्वा॑ । सम् । व॒दे॒ । तत् । क॒दा । नु । अ॒न्तः । वरु॑णे । भु॒वा॒नि॒ । किम् । मे॒ । ह॒व्यम् । अहृ॑णानः । जु॒षे॒त॒ । क॒दा । मृ॒ळी॒कम् । सु॒ऽमनाः॑ । अ॒भि । ख्य॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्वया तन्वा३ सं वदे तत्कदा न्व१न्तर्वरुणे भुवानि । किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृळीकं सुमना अभि ख्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्वया । तन्वा । सम् । वदे । तत् । कदा । नु । अन्तः । वरुणे । भुवानि । किम् । मे । हव्यम् । अहृणानः । जुषेत । कदा । मृळीकम् । सुऽमनाः । अभि । ख्यम् ॥ ७.८६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मोपासनाप्रकारः कथ्यते। 

    पदार्थः

    (उत) किं (स्वया, तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) सम्यक् (तत्) तेनोपास्येन सह (वदे) आलापं करवाणि (कदा) कस्मिन्काले (तु) निश्चयं (वरुणे, अन्तः) तस्य भजनीयस्य स्वरूपे (भुवानि) प्रविशानि (किम्) किमीश्वरः (मे) मम (हव्यम्) उपासनारूपमुपहारं (अहृणानः) अक्रुध्यन् (जुषेत) स्वीकुर्यात्   (कदा) क्व काले (मृळीकम्) तं सर्वसुखप्रदातारं (सुमनाः) शोभनमनस्कः (अभि, ख्यम्) अभितः पश्येयम् ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा की उपासना का प्रकार कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (उत) अथवा (स्वया, तन्वा) अपने शरीर से (सं) भले प्रकार (तत्) उस उपास्य के साथ (वदे) आलाप करूँ (कदा) कब (नु) निश्चय करके (वरुणे, अन्तः) उस उपास्य देव के स्वरूप में (भुवानि) प्रवेश करूँगा (किं) क्या परमात्मा (मे) मेरी (हव्यं) उपासनारूप भेंट को (अहृणानः) प्रसन्न होकर (जुषेत) स्वीकार करेंगे, (कदा) कब (मृळीकं) उस सर्वसुखदाता को (सुमनाः) संस्कृत मन द्वारा (अभि, ख्यं) सब ओर से ज्ञानगोचर करूँगा ॥२॥

    भावार्थ

    उपासक पुरुष उपासनाकाल में उस दिव्यज्योति परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मैं आपके समीप होकर आपसे आलाप करूँ, हे सर्वनियन्ता भगवन् ! आप मेरी उपासनारूप भेंट को स्वीकार करके ऐसी कृपा करें कि मैं सर्वसुखदाता आपको अपने पवित्र मन द्वारा ज्ञानगोचर करूँ, आप ही की उपासना में निरन्तर रत रहूँ और एकमात्र आप ही मेरे सम्मुख लक्ष्य हों अर्थात् उपासक पुरुष नानाप्रकार के तर्क-वितर्कों से यह निश्चय करता है कि मैं ऐसे साधन सम्पादन करूँ, जिनसे उस आनन्दस्वरूप में निमग्न होकर आनन्द का अनुभव करूँ ॥२॥

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    विषय

    परमेश्वर की भक्तिपूर्वक प्रार्थनोपासना ।

    भावार्थ

    ( उत ) और ( स्वया तन्वा ) मैं अपने इस देह से ( तत् ) उसकी ( कदा ) कब ( संवेद ) स्तुति करूं, उसके साथ साक्षात् संवाद करूं और (कदा नु) कब मैं ( वरुणे अन्तः ) उस वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष के हृदय में भीतर, वरणीय पति के बीच वधू के समान ( भुवानि ) एक हो सकूंगा । वह प्रभु, नाथ ( अहृणानः ) मेरे प्रति अनादर वा कोप से रहित होकर ( मे हव्यं ) मेरे स्तुतिवचन भेंट को ( किं जुषेत ) क्योंकर प्रेम से स्वीकार करेगा। और मैं ( कदा ) कब ( सुमनाः ) शुभ चित्त होकर उस ( मृडीकं ) परम सुखप्रद, दयालु आनन्दमय को ( अभि ख्यम् ) साक्षात् करूंगा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४, ५, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    भक्त की तड़प

    पदार्थ

    पदार्थ - (उत) = और (स्वया तन्वा) = मैं अपने इस देह से (तत्) = उसका (कदा) = कब (संवेद) = साक्षात् करूँ और (कदा नु) = कब मैं (वरुणे अन्तः) = उस वरणीय श्रेष्ठ पुरुष के हृदय में भुवानि एक हो सकूँगा। वह प्रभु, (अहणानः) = मेरे प्रति कोप-रहित होकर (मे हव्यं) = मेरे स्तुतिवचन को (किं जुषेत) = क्योंकर प्रेम से स्वीकार करेगा और मैं (कदा) = कब (सुमना:) = शुभ-चित्त होकर उस (मृडीकं) = आनन्दमय का (अभि ख्यम्) = साक्षात् करूँगा।

    भावार्थ

    भावार्थ-ईश्वर का भक्त अपने प्रभु से पूछता है कि हे प्रभो! कब वह अवसर आएगा जब मैं आपका साक्षात् अपने अन्तःकरण में कर सकूँगा? तथा कब आप मेरी स्तुतियों को प्रेम से स्वीकार करेंगे ?

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    मन्त्रार्थ

    (उत स्वया तन्वा संवदे) हाँ! मैं अपनी देह से संवाद करता हूँ-पूछता हूँ (तत् कदा नु वरणे-अन्त:-भुवानि) तो फिर कब मैं वरने योग्य एवं वरने वाले परमात्मा के अन्दर विराजमान होऊं- ऐसा दिन कब श्रायेगा जबकि मैं वरने योग्य और वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान देखूं (मे) मेरी (किं हव्यम्) किस भेंट को (अहृणानः-जुषेत) वह स्वागत करता हुआ स्वीकार करे (कदा मृडीकं सुमनाः-अभिख्यम्) कब मैं सुख-पूर्वक आनन्दरूप परमात्मा को पवित्र मनवाला और निरुद्धमन वाला होकर देख सकूं ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः-वसिष्ठः (परमात्मा में अतिशय से वसनेवाला उपासक) देवता- वरुणः (वरने योग्य तथा वरनेवाला उभयगुणसम्पन्न परमात्मा)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And when would I, by my own individual self, commune with the lord? When would I join the innermost presence of Varuna? Would he accept my homage and prayer with pleasure? When would I, with peace in the mind, experience the bliss of that presence and power?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासक पुरुष उपासना काळात त्या दिव्य ज्योती परमात्म्याला प्रार्थना करतो, की हे भगवान! तू मला अशी शक्ती दे, की मी तुझ्याजवळ राहून तुझे भजन करावे. हे सर्वानियंता भगवान! तू माझी उपासनारूपी भेट स्वीकार करून अशी कृपा कर, की सर्व सुखदाता मी तुला आपल्या पवित्र मनाद्वारे ज्ञानगोचर करावे. सदैव तुझ्या उपासनेत रत राहावे. एकमेव तूच माझे लक्ष्य असावेस. अर्थात्, उपासक पुरुष विविध प्रकारच्या तर्कवितर्कांनी हा निश्चय करतो, की मी असे साधन संपादित करावे, की ज्यामुळे त्या आनंदस्वरूपात निमग्न राहून आनंदाचा अनुभव घ्यावा. ॥२॥

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