ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 5
अव॑ द्रु॒ग्धानि॒ पित्र्या॑ सृजा॒ नोऽव॒ या व॒यं च॑कृ॒मा त॒नूभि॑: । अव॑ राजन्पशु॒तृपं॒ न ता॒युं सृ॒जा व॒त्सं न दाम्नो॒ वसि॑ष्ठम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । द्रु॒ग्धानि॑ । पित्र्या॑ । सृ॒ज॒ । नः॒ । अव॑ । या । व॒यम् । च॒कृ॒म । त॒नूभिः॑ । अव॑ । रा॒ज॒न् । प॒शु॒ऽतृप॑म् । न । ता॒युम् । सृ॒ज । व॒त्सम् । न । दाम्नः॑ । वसि॑ष्ठम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव द्रुग्धानि पित्र्या सृजा नोऽव या वयं चकृमा तनूभि: । अव राजन्पशुतृपं न तायुं सृजा वत्सं न दाम्नो वसिष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । द्रुग्धानि । पित्र्या । सृज । नः । अव । या । वयम् । चकृम । तनूभिः । अव । राजन् । पशुऽतृपम् । न । तायुम् । सृज । वत्सम् । न । दाम्नः । वसिष्ठम् ॥ ७.८६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पित्र्यपापानि मार्ष्टुं प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(राजन्) भो विराजमान भगवन् ! भवान् (द्रुग्धानि, पित्र्या) मातापित्रोः प्रकृतेः (नः) आगता अस्माकं दोषाः, तथा (या) यानि (वयम्) वयं (तनूभिः) शरीरेण (चकृम) अकार्ष्म (अव) तानि मुञ्चतु (पशुतृपम्) पशूनामिवास्माकं विषयवासनाः तथा (तायुम्, न) तस्कराणामिव मद्भावाः सन्ति, तान् (सृज) अपनयतु, (दाम्नः) रज्जुना बद्धेन (वत्सम्) वत्सेन सदृशं (वसिष्ठम्) विषयानुविद्धं मां (अवसृज) मुञ्चतु ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
अब पैत्रप्रकृति द्वारा आये हुए पापों के मार्जनार्थ प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थ
(राजन्) हे सर्वोपरि विराजमान जगदीश्वर ! आप (द्रुग्धानि, पित्र्या) माता-पिता की प्रकृति से (नः) हम में आये हुए दोष और (या) जिनको (वयं) हमने (तनूभिः) शरीर द्वारा (चकृम) किया है (अव) और जो (पशुतृपं) पशुओं के समान हमारी विषयवासनारूप वृत्ति तथा (तायुं, न) चोरों के समान हमारे भाव हैं, उनको (सृज) दूर करके (दाम्नः) रज्जु के साथ बँधे हुए (वत्सम्) वत्स के (न) समान (वसिष्ठं) विषय-वासनाओं में लिप्त मुझको (अव, सृज) मुक्त करें ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में विषय-वासना में लिप्त जीवन की ओर से यह प्रार्थना की गई है कि हे जगदीश्वर ! जो स्वभाव मेरे माता-पिता की ओर से मुझमें आया है अथवा मैंने अपने दुष्कर्मों से जो प्रकृति बना ली है, उसको आप अपनी कृपा से दूर करके मुझको अपना समीपी बनावें। जिस प्रकार रज्जु से बँधा हुआ वत्स अपनी माता का दूध नहीं पी सकता, इसी प्रकार विषयवासनारूप रज्जु में बँधा हुआ मैं आपके स्वरूपरूपी कामधेनु का दुग्धपान नहीं कर सकता, हे प्रभो ! आपसे विमुख करनेवाले विषयावासनारूप बन्धनों से मुक्त करके मुझको आनन्द का भोक्ता बनायें, यह मेरी आपसे प्रार्थना है ॥५॥
विषय
बन्धन-मोचन की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( राजन ) राजन् ! प्रकाशस्वरूप स्वामिन् ! प्रभो ! तू ( नः ) हमारे (पित्र्या) पालक माता पिता वा गुरुजनों के दोष के कारण प्राप्त हुए ( दुग्धानि ) तेरे प्रति किये द्रोह आदि अपराधों को (अव सृज) हम से दूर कर । और ( वयं ) जिन अपराधों को हम ( तनूभिः चकृम ) इन देहों से करते रहे हैं उनको भी ( अव सृज ) हम से दूर कर। ( तायुं न पशु-तृपं ) चोरी करने की नियत से पशु को घासादि खिलाने वाले सन्देह मात्र में बांध लिये गये चोर के समान बन्धन में बंधे मुझ ( पशु-तृपं ) अपने इन्द्रियरूप पशुओं को भोग विलासों से तृप्त करते हुए ( तायुं ) तेरे ऐश्वर्य को तेरे विना पूछे भोगने वाले चोरवत् मुझ ( वसिष्ठं ) अति उत्तम 'वसु' तुझमें ही वसने वाले तेरे भक्त को तू (दाम्नः वत्सं न) रस्से से बछड़े के समान दयालु पशुपालकवत् (अव सृज) मुझे बन्धन से मुक्त कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४, ५, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
आत्म निरीक्षण
पदार्थ
पदार्थ- हे (राजन्) = प्रकाशस्वरूप प्रभो ! तू (नः) = हमारे (पित्र्या) = माता-पिता के दोष के कारण प्राप्त, (द्रुग्धानि) = तेरे प्रति किये द्रोह आदि अपराधों को (अव सृज) = दूर कर और (वयं) = जिन अपराधों को हम (तनूभिः चकृम) = देहों से करते हैं उनको भी (अव सृज) = दूर कर । (तायुं न पशुतृपं) = चोरी की नियत से पशु को घासादि खिलानेवाले, सन्देह मात्र में बद्ध चोर के समान बँधन में बँधे, (पशु-तृपं) = अपने इन्द्रियरूप पशुओं को भोग-विलासों से तृप्त करते हुए (तायुं) = तेरे ऐश्वर्य को बिना पूछे भोगनेवाले चोरवत् मुझ (वसिष्ठं) = अति उत्तम 'वसु', तुझमें ही बसनेवाले तेरे भक्त फल को तू (दाम्नः वत्सं न) = रस्से से बछड़े के समान, दयालु पशुपालकवत् अव सृज- बँधन से मुक्त कर।
भावार्थ
भावार्थ-उपासक आत्म निरीक्षण करे कि माता-पिता के दोष के कारण मैंने कौन-सा पाप किया। इन्द्रियों की भोग-विलासों की तृप्ति के लिए कौन-सा पाप किया। परमात्मा की प्रेरणा रूप आत्मा की आवाज को दबाकर मैंने कौन-सा पाप कर्म किया है? इस प्रकार के चिन्तन से उपासक पाप कर्मों से बचकर बंधनों से मुक्त हो जाएगा।
मन्त्रार्थ
(राजन् नः पित्र्या दुग्धानि अवसृज) हे वरने योग्य वरने वाले राजमान परमात्मन्! हमारे पैतृक पितरों-पितापितामह आदि द्वारा किये तेरे प्रति द्रोहों-नास्तिक भावों को छोड-उन्हें मेरे सम्बन्ध में न गिन (वयं तनूभिः-या चक्रम-अवसृजः) तथा हमने अपने अङ्गों से जो तेरे प्रति द्रोह-नास्तिकभाव अपराध किये हैं उन्हें भी 'छोड दे-न गिन' ऐसे कि (पशुपं न ताम्-अवसृज) जैसे पश्चात्तापशील चोर चोरी करके परधन से पुष्ट हो किसी दैवी ठोकर से या उपदंश से पश्चात्ताप कर अपने देह को किसी जङ्गली पशु को खिला देने तक उद्यत 'हुआ हो वह छोडने योग्य होता है एवं मुझे छोड दे तथा (वत्सं न दाम्नः-वसिष्ठम्) बच्चा जैसे अज्ञानवश पाप सम्पर्क में आये अपने उपासक को सुरक्षित रख ॥५॥
विशेष
ऋषिः-वसिष्ठः (परमात्मा में अतिशय से वसनेवाला उपासक) देवता- वरुणः (वरने योग्य तथा वरनेवाला उभयगुणसम्पन्न परमात्मा)
इंग्लिश (1)
Meaning
Loosen and free us from weaknesses inherited from the forefathers. Save us from the sins and evils committed by ourselves in person. O sovereign ruler, free us from animal passions, like the thief from jail, and relieve the earnest celebrant from passions and slavery, like the calf set free from bonds of the tether.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात विषयवासनेत लिप्त असलेल्या जीवाद्वारे प्रार्थना केलेली आहे, की हे जगदीश्वरा! जे स्वाभाविकरीत्या, माझ्या मात्या-पित्याकडून मला प्राप्त झालेले आहे किंवा मी माझ्या दुष्कर्मांनी जी प्रकृती (प्रवृत्ती) बनविलेली आहे. ती तुझ्या कृपेने दूर करून मला जवळ कर. ज्या प्रकारे दोरीने बांधलेले वासरू आपल्या मातेचे दूध पिऊ शकत नाही त्याच प्रकारे विषयवासनारूपी रज्जूमध्ये बंधित असलेला मी तुझ्या स्वरूपाच्या कामधेनूचे दुग्धपान करू शकत नाही. हे प्रभो! तुझ्यापासून विमुख करणाऱ्या विषयवासनारूपी बंधनातून मुक्त करून मला आनंदाचा भोक्ता बनव. हीच माझी प्रार्थना आहे. ॥५॥
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