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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पृ॒च्छे तदेनो॑ वरुण दि॒दृक्षूपो॑ एमि चिकि॒तुषो॑ वि॒पृच्छ॑म् । स॒मा॒नमिन्मे॑ क॒वय॑श्चिदाहुर॒यं ह॒ तुभ्यं॒ वरु॑णो हृणीते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒च्छे । तत् । एनः॑ । व॒रु॒ण॒ । दि॒दृक्षु॑ । उपो॒ इति॑ । ए॒मि॒ । चि॒कि॒तुषः॑ । वि॒ऽपृच्छ॑म् । स॒मा॒नम् । इत् । मे॒ । क॒वयः॑ । चि॒त् । आ॒हुः॒ । अ॒यम् । ह॒ । तुभ्य॑म् । वरु॑णः । हृ॒णी॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृच्छे तदेनो वरुण दिदृक्षूपो एमि चिकितुषो विपृच्छम् । समानमिन्मे कवयश्चिदाहुरयं ह तुभ्यं वरुणो हृणीते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृच्छे । तत् । एनः । वरुण । दिदृक्षु । उपो इति । एमि । चिकितुषः । विऽपृच्छम् । समानम् । इत् । मे । कवयः । चित् । आहुः । अयम् । ह । तुभ्यम् । वरुणः । हृणीते ॥ ७.८६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वरुणः) भोः सर्वभजनीय परमात्मन् ! (तत्) तत् (एनः) पापं (पृच्छे) भवन्तं पृच्छामि (उपो, दिदृक्षु) भवन्तं दिदृक्षुरहं (चिकितुषः) सर्वथा निर्बन्धनः (एमि) भवन्तं प्राप्नुयां (कवयः) विद्वांसः (विपृच्छम्) साधुपृष्टाः (समानम्) भवद्विषये (मे) मां (चित्) निश्चयं (आहुः) ब्रुवन्ति वक्ष्यमाणं (ह) प्रसिद्धमिदं यत् (अयम्) अयं (वरुणः) समर्थः ईश्वरः (तुभ्यम्) त्वामुपासकं (इत्) निश्चयेन (हृणीते) पापेभ्य उद्धृत्य सुखं प्रति नयति ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वरुण) हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! (तत्) वह (एनः) पाप (पृच्छे) आप से पूछता हूँ (उपो, दिदृक्षु) आपके दर्शन का अभिलाषी मैं (चिकितुषः) सर्वथा बन्धनरहित होकर (एमि) आपको प्राप्त होऊँ, (कवयः) विद्वान् पुरुष (विपृच्छं) भले प्रकार पूछने पर (समानं) आपके विषय में (मे) मुझको (चित्) निश्चयपूर्वक (आहुः) यह कहते हैं, (ह) प्रसिद्ध है कि (अयं) यह (वरुणः) सर्वशक्तिमान् परमात्मा (तुभ्यं) उपासकों को (इत्) निश्चय करके (हृणीते) पापों से उभारकर सुख की ओर ले जाना चाहता है ॥३॥

    भावार्थ

    हे सर्वव्यापक ! मैं उन पापों को कैसे जानूँ, जिनके कारण आपके दर्शन से वञ्चित हूँ। हे सर्वपालक ! ऐसी कृपा कर कि मैं उन पापों से छूटकर आपको प्राप्त होउँ। यह प्रसिद्ध है कि वेदों के ज्ञाता विद्वान् पुरुष पूछने पर निश्चयपूर्वक यह कहते हैं कि परमात्मा सबका मङ्गल, कल्याण चाहते हैं, यदि उपासक अंशमात्र भी उनकी ओर झुके, तो वह दयालु भगवान् स्वयं उसका उद्धार करते हैं, इसलिए पुरुष को चाहिए कि वह साधनसम्पन्न होकर परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त हो, तभी उसका उद्धार हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥३॥

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    विषय

    बन्धन की जिज्ञासा । मोक्ष की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) वरण करने योग्य ! सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! मैं ( दिदृक्षु ) दर्शन करने का। अभिलाषी होकर ( तद् एनः पृच्छे ) तुझ से वह पाप पूछता हूं जिसके कारण मैं यहां बंधा हूं। मैं ( उप-उ एमि ) जिज्ञासु दर्शनाभिलाषी होकर तेरे समीप आया हूं । और मैं ( चिकितुषः ) ज्ञानी पुरुषों से भी ( वि पृच्छम् ) विविध प्रकार से पूछता रहा हूं । ( कवयः चित् ये समानम् इत् आहुः ) पूज्य विद्वान् गण सभी मुझे एक समान ही उपदेश करते रहे हैं कि निश्चय से ( अयं वरुणः ) यह वरुण, सर्वश्रेष्ठ प्रभु ही ( तुभ्यं हृणीते) तुझ पर रुष्ट है, तेरा आदर नहीं करता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४, ५, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ईशदर्शन की अभिलाषा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (वरुण) = वरणीय प्रभो! मैं (निदृक्षु) = दर्शनाभिलाषी होकर (तद् एनः पृच्छे) = तुझसे वह पाप पूछता हूँ जिसके कारण मैं बँधा हूँ। मैं (उष- उ एमि) = जिज्ञासु होकर तेरे पास आया हूँ और मैं (चिकितुष:) = ज्ञानी पुरुषों से भी (वि पृच्छम्) = पूछता रहा हूँ। (कवयः चित्) = ये समानम् (इत् आहुः) = विद्वान् मुझे एक समान ही कहते हैं कि (अयं वरुणः) = यह वरुण, श्रेष्ठ प्रभु ही (तुभ्यं हृणीते) = तुझ पर रुष्ट है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक अपने प्रियतम से पूछे कि हे वरणीय प्रभो ! मेरे कौन से पाप का है कि मैं आपके दर्शन से वंचित हूँ। विद्वान् लोग तो यही कहते हैं कि वह श्रेष्ठ प्रभु ही आने पर तेरा वरण करेंगे। हे प्रभो ! मुझ दर्शनाभिलाषी को दर्शन दो।

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    मन्त्रार्थ

    (वरुण) हे वरने योग्य और वरने वाले परमात्मन्! (दिदृक्षु) मैं तेरे दर्शन का इच्छुक (तत्-एनः पृच्छे) उस दोष को पूछता हूं जो तेरे दर्शन में बाधक है तथा (चिकितुषः-उप-एमि-उ विपृच्छम्) विद्वानों के पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं कि मेरे में क्या दोष है (कवयः-चित्) वे विद्वान् भी (मे समानम्-इत्-आहुः) मुझे समान ही उत्तर देते हैं कि (अयं ह वरुणः-तुभ्यं हृणीते) अरे यह वरुण परमात्मा तेरे लिये अनादर करता है-अस्वागत भाव तेरे प्रति रखता है अयोग्य स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने रूप अपराध से ॥३॥

    विशेष

    ऋषिः-वसिष्ठः (परमात्मा में अतिशय से वसनेवाला उपासक) देवता- वरुणः (वरने योग्य तथा वरनेवाला उभयगुणसम्पन्न परमात्मा)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Varuna, I ask myself what sin is. Keen for the vision of divinity, I go and meet the wise, and freely I ask what sin is. And the wise sages all say the same thing to me : This Varuna feels displeased only for your sake, to save you from sin.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सर्वव्यापक! मी ते पाप कसे जाणू ज्या कारणांमुळे तुझ्या दर्शनापासून वंचित आहे. हे सर्व पालक! अशी कृपा कर, की मी त्या पापांपासून सुटून तुझी प्राप्ती करून घ्यावी. वेदाचे ज्ञाते विद्वान पुरुष निश्चयपूर्वक सांगतात की परमात्मा सर्वांचे कल्याण मंगल इच्छितो. जर उपासक किंचितही त्याच्याकडे झुकले, तर तो दयाळू भगवान स्वत: त्यांचा उद्धार करतो. त्यासाठी पुरुषाने साधनसंपन्न बनून परमात्म्याच्या उपासनेत प्रवृत्त व्हावे. तेव्हाच त्याचा उद्धार होऊ शकतो अन्यथा होऊ शकत नाही. ॥३॥

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