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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किमाग॑ आस वरुण॒ ज्येष्ठं॒ यत्स्तो॒तारं॒ जिघां॑ससि॒ सखा॑यम् । प्र तन्मे॑ वोचो दूळभ स्वधा॒वोऽव॑ त्वाने॒ना नम॑सा तु॒र इ॑याम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । आगः॑ । आ॒स॒ । व॒रु॒ण॒ । ज्येष्ठ॑म् । यत् । स्तो॒तार॑म् । जिघां॑ससि । सखा॑यम् । प्र । तत् । मे॒ । वो॒चः॒ । दुः॒ऽद॒भ॒ । स्व॒धा॒ऽवः॒ । अव॑ । त्वा॒ । अ॒ने॒नाः । नम॑सा । तु॒रः । इ॒या॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमाग आस वरुण ज्येष्ठं यत्स्तोतारं जिघांससि सखायम् । प्र तन्मे वोचो दूळभ स्वधावोऽव त्वानेना नमसा तुर इयाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । आगः । आस । वरुण । ज्येष्ठम् । यत् । स्तोतारम् । जिघांससि । सखायम् । प्र । तत् । मे । वोचः । दुःऽदभ । स्वधाऽवः । अव । त्वा । अनेनाः । नमसा । तुरः । इयाम् ॥ ७.८६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वरुण) हे मङ्गलस्वरूप परमात्मन् ! तत् (किम्) किं (ज्येष्ठम्) महत् (आगः) पापम्=अपराधः (आस) बभूव मया (यत्) येन हेतुना (सखायम्) मित्रभूतं (स्तोतारम्) स्वोपासकं (जिघांससि) हन्तुमिच्छसि (तत्) तत्पापं (प्र) विशेषेण (मे) मां प्रति (वोचः) ब्रूयाः (दूळभ) हे जेतुमशक्य ! (त्वा) त्वं (स्वधावः) सुतेजोमयोऽसि, अतः (अनेनाः) मां निष्पापं विधाय (अव) रक्ष, यतोऽहं (नमसा) नम्रतया (तुरः) सत्वरं (इयाम्) त्वां प्राप्नुयाम् ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वरुण) हे मङ्गलमय परमात्मन् ! वह (किं) क्या (ज्येष्ठं) बड़े (आगः) पाप (आस) हैं, (यत्) जिनके कारण (सखायं) मित्ररूप आप (स्तोतारं) उपासकों को (जिघांससि) हनन करना चाहते हैं, (तत्) उनको (प्र) विशेषरूप से (मे) मेरे प्रति (वोचः) कथन करें। (दूळभ) हे सर्वोपरि अजेय परमात्मन् ! (त्वा) आप (स्वधावः) ऐश्वर्य्यसम्पन्न हैं, इसलिए (अनेनाः) ऐसे पापों से (अव) रक्षा करें, ताकि मैं (नमसा) नम्रतापूर्वक (तुरः) शीघ्र ही (इयां) आपको प्राप्त होऊँ ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपासक अपने पापों के मार्जननिमित्त परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे महाराज ! वह मैंने कौन बड़े पाप किये हैं, जिनके कारण मैं आपको प्राप्त नहीं हो सकता अथवा आपकी प्राप्ति में विघ्नकारी है। हे मित्ररूप परमेश्वर ! आप मेरा हनन न करते हुए अपनी कृपा द्वारा उन पापों से मुझे निर्मुक्त करें, ताकि मैं शीघ्र ही आपको प्राप्त होऊँ ॥ तात्पर्य्य यह है कि पुरुष जब तक अपने दुर्गुणों को आप अनुभव नहीं करता, तब तक वह अपना सुधार नहीं कर सकता। मनुष्य का सुधार तभी होता है, जब वह अपने आपको आत्मिक उन्नति में निर्बल पाता है। परमात्मा आज्ञा देते हैं कि जिज्ञासु जनों ! तुम अघमर्षणादि मन्त्रों के पाठ द्वारा अपने आपको पवित्र बनाकर मेरे समीप आओ, तुम्हें आनन्द प्राप्त होगा ॥५॥

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    विषय

    पाप-मोचन की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ ! दुष्टों के वारण करने हारे प्रभो ! (किम् आग: आस) वह क्या अपराध है ? ( यत् ) जिसके कारण ( ज्येष्ठ स्तोतारं ) अपने बड़े से बड़े उत्तम स्तुतिकर्ता ( सखायं ) स्नेही मित्र को भी ( जिधांससि ) दण्ड सा देना चाहता है । हे ( दूडभ ) दुर्लभ हे न नाश होने हारे अविनाशिन् ! हे दूरभ ! सदा दूर २ विद्यमान ! हे अन्नपते, जीवन के स्वामिन् ! ( मे तत् प्रवोचः ) मुझे वह उपाय बतला जिससे ( अनेनाः ) निष्पाप होकर ( नमसा ) भक्तिभाव से विनीत होकर ( तुरः ) अति शीघ्र चलकर ( त्वा अव इयाम् ) तुझ तक पहुंच जाऊं। तुझे भली प्रकार जान जाऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४, ५, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अविनाशी से याचना

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (वरुण) = सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! (किम् आग: आस) = वह क्या अपराध है? (यत्) = जिसके कारण (ज्येष्ठं स्तोतारं) = बड़े-बड़े स्तुतिकर्ता (सखायं) = मित्र को भी (जिघांससि) = दण्ड देना चाहता है। हे (दूडभ) = दुर्लभ ! हे अविनाशिन्! हे दूरभ! सदा दूर, विद्यमान ! हे (स्वधावः) = अन्नपते, जीवन के स्वामिन् ! (मे तत् प्रवोच:) = मुझे वह उपाय बतला जिससे (अनेना:) = निष्पाप होकर (नमसा) = भक्ति से (तुरः) = शीघ्र (त्वा अव इयाम्) = तुझ तक पहुँच जाऊँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक प्रभु से पूछे कि हे वरुण प्रभो ! किन अपराधों के कारण भक्त भी दण्ड पाता है ? अविनाशी मुझे वह उपाय बताओ कि जिससे मैं निष्पाप होकर आप तक पहुँच सकूँ।

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    मन्त्रार्थ

    (वरुण किं ज्येष्ठम्-आग:-आस) हे वरने योग्य एवं वर वाले परमात्मन् ! मेरा क्या बडा अपराध है ? (यत् स्तोतारं सखायं जिघांससि) कि जो स्तुति करने वाले सखा को अपने प्रदर्शन से पीडित करना चाहता है (दूळ न स्वभावः-तत्-मे प्रवोचः) हे दुर्लभदर्शनीय या दुर्दमनीय आनन्दरस वाले परमात्मन् ! उस अपराध को मुझे बतला । जिससे (अनेना:तुर:-नमसा-व-इमाम्) मैं पापरहित होकर शीघ्र नम्रीभाव से तुझे प्राप्त होऊं ॥४॥

    टिप्पणी

    "सुपां सुलुक् ..." (अष्टा० ७।३।३९) इति सुलुक्

    विशेष

    ऋषिः-वसिष्ठः (परमात्मा में अतिशय से वसनेवाला उपासक) देवता- वरुणः (वरने योग्य तथा वरनेवाला उभयगुणसम्पन्न परमात्मा)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Varuna, what is the greatest sin or crime for which you punish your friend and celebrant? Speak of that to me, O lord rare to be attained, self-refulgent and self-omnipotent. Save me, lord. A sinless innocent soul, post haste I come to you with homage, prayer and surrender.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपासक आपल्या पापाच्या मार्जनानिमित्त परमात्म्याला प्रार्थना करतो, की हे महाराज! मी अनेक प्रकारची पापे केलेली आहेत. त्यामुळे मी तुला प्राप्त करू शकत नाही अथवा तुझ्या प्राप्तीत ती विघ्नकारी आहेत. हे मित्ररूप परमेश्वरा! तू माझा नाश न करता तुझ्या कृपेद्वारे त्या पापांपासून मला मुक्त कर. त्यामुळे मला तुझी प्राप्ती होईल.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की जोपर्यंत पुरुष आपल्या दुर्गुणांना स्वत: अनुभवीत नाही तोपर्यंत तो सुधारू शकत नाही. माणूस तेव्हाच सुधारतो जेव्हा तो स्वत:ला आत्मिक उन्नती करण्यास असमर्थ समजतो. परमात्मा आज्ञा देतो, की हे जिज्ञासू लोकांनो! तुम्ही अघमर्षण इत्यादी मंत्राच्या पाठाद्वारे स्वत:ला पवित्र करून माझ्याजवळ या म्हणजे तुम्हाला आनंदाची प्राप्ती होईल.॥४॥

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