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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒पामू॒र्मिर्मद॑न्निव॒ स्तोम॑ इन्द्राजिरायते । वि ते॒ मदा॑ अराजिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम् । ऊ॒र्मिः । मद॑न्ऽइव । स्तोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । अ॒जि॒र॒ऽय॒ते॒ । वि । ते॒ । मदाः॑ । अ॒रा॒जि॒षुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामूर्मिर्मदन्निव स्तोम इन्द्राजिरायते । वि ते मदा अराजिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम् । ऊर्मिः । मदन्ऽइव । स्तोमः । इन्द्र । अजिरऽयते । वि । ते । मदाः । अराजिषुः ॥ ८.१४.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे योद्धः ! (अपाम्, ऊर्मिः, इव) जलतरङ्ग इव (मदन्) हर्षं जनयन् (स्तोमः, अजिरायते) स्तोत्रं ते व्याप्नोति (ते, मदाः) त्वयोत्पादिता हर्षाः (व्यराजिषुः) विराजन्ते ॥१०॥

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    विषयः

    महिम्नः स्तुति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यथा अपाम्=जलानाम् । ऊर्मिः=तरङ्गः । मदन्निव=माद्यन्निव=परस्परं क्रीडन्निव बलेन वर्धते । तथैव विदुषां विरचितः । स्तोमः=स्तुतिसमूहः । अजिरायते=अग्रगमनाय शीघ्रायते । सर्वे खलु विद्वांसः स्वं स्वं स्तोत्रं तवाग्रे प्रथममेव प्रेरयितुं यतन्ते । ते=तव । मदाः=आनन्दाः । तव कृपया सदा । वि+अराजिषुः=विशेषेण शोभन्ते । अजिरः शीघ्रगन्ता स इवाचरतीति अजिरायते ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे योद्धा ! (अपाम्, ऊर्मिः, इव) जल की तरङ्गों के समान (मदन्) हर्ष उत्पन्न करता हुआ (स्तोमः, अजिरायते) आपका स्तोत्र सर्वत्र फैल रहा है (ते, मदाः) आपके उत्पादित हर्ष (व्यराजिषुः) प्रजाओं में शोभित हो रहे हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार जल की तरङ्ग नई-नई एक के उपरान्त दूसरी, उसके बाद तीसरी इत्यादि निरन्तर उत्पन्न हुआ करती हैं, इसी प्रकार न्यायतत्पर राजा की तरङ्गरूपी स्तुति भी प्रजारूप जल में निरन्तर नई-नई उत्पन्न हुआ करती हैं, तभी उसके क्षात्रगुणों से प्रजा निर्विघ्न रहती है। अतएव राजा को उचित है कि अपनी निन्दा के भय से सब प्रजा में नया-नया हर्ष उत्पन्न करता रहे, जिससे सब प्रजा सन्तुष्ट रहकर सदैव उसकी अनुगामी हो ॥१०॥

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    विषय

    महिमा की स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) इन्द्र जैसे (अपाम्) जलों का (ऊर्मिः) तरङ्ग (मदन्+इव) मानो, परस्पर क्रीड़ा करता हुआ बलपूर्वक आगे बढ़ता है । तद्वत् (स्तोमः) तेरे लिये विद्वानों से विरचित (स्तोमः) स्तुति समूह (अजिरायते) अग्रगमन के लिये शीघ्रता करते हैं अर्थात् प्रत्येक विद्वान् स्व-स्व स्तुतिरूप उपहार आपके निकट प्रथम ही पहुँचाने के लिये प्रयत्न कर रहा है । हे इन्द्र ! (ते) वे आपके (मदाः) आनन्द (वि+अराजिषुः) सर्वत्र विराजमान हो रहे हैं । हम लोग उसके भागी होवें ॥१० ॥

    भावार्थ

    सब ही विवेकी प्रातःकाल ही उठकर उसकी स्तुति करते हैं । हे भगवन् ! आपने सर्वत्र आनन्द बिछा दिया है । उसको लेने के लिये जिससे हममें बुद्धि उत्पन्न हो, वैसा उपाय दिखलाकर कृपा कर ॥१० ॥

    टिप्पणी

    आस्तिक विद्वानों को प्रतिदिन एक दो स्तोत्र बनाकर भगवदाराधन करना परम कर्त्तव्य है । जैसे सामुद्रिक तरङ्ग निरन्तर निज कौतुक दिखाकर मनुष्य जीवन के आह्लाद को बढ़ाता रहता है, तद्वत् पण्डित सर्वदा प्रजाओं को विश्वासी और श्रद्धालु बनाते हुए महान् आत्मा की ओर स्व-स्व कर्त्तव्य रज्जू द्वारा खेंचते रहते हैं ॥१० ॥

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    विषय

    आनन्द-सागर प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( स्तोमः ) स्तुतिप्रवाह ( मदन् इव ) उछलते ( अपाम् ऊर्मिः इव ) समुद्रों के तरंग के समान ( अपाम् ऊभिः ) प्राणों के तरंगवत् ( अजिरायते ) वेग से उठता है, ( ते मदा ) तेरे आनन्द प्रवाह ( वि अराजिषुः ) विविध प्रकार से विराजते हैं। परमेश्वर के प्रति स्तुतिसमूह प्राणों के उठते प्रवाह रूप से जल तरंगवत् हृदय समुद्र से उछलता है, प्रभु के आनन्द ही मानो सर्वत्र प्रकशित हो रहे हैं। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥

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    विषय

    भक्ति की तरंगों का आनन्दोल्लास

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आपका (स्तोमः) = स्तुति समूह मेरे अन्दर इस प्रकार (अजिरायते) = क्षिप्रगामी के समान आचरण करता है, (इव) = जैसे (अदन्) = हर्ष का अनुभव करती हुई, मस्त होती हुई (अपाम् ऊर्मि:) = जल की तरंग शीघ्र गतिवाली होती है। जैसे समुद्र तरंगों से तरंगति होता है, इसी प्रकार हमारा मानस समुद्र भक्ति की तरंगों से तरंगित होता है। [२] हे प्रभो ! (ते मदा:) = तेरी भक्ति से उत्पन्न हुए हुए आनन्दोल्लास (वि अराजिषुः) = विशिष्ट रूप से दीप्त होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा हृदय भक्ति की तरंगों से तरंगित होता है। ये तरंगें हमारे हृदयों को आनन्दोल्लसित करती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like exulting waves of the sea, this hymn of adoration rises and reaches you, and the vibrations of your joyous response too emanate and pervade everywhere.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व विवेकी प्रात:काळी उठून त्याची स्तुती करतात. हे भगवान! तू सर्वत्र आनंद पसरविलेला आहेस. तो प्राप्त करण्यासाठी आमच्यामध्ये बुद्धी उत्पन्न होईल असा उपाय कृपा करून सुचव ॥१०॥

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