ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 13
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चे॒: शिर॑ इ॒न्द्रोद॑वर्तयः । विश्वा॒ यदज॑य॒: स्पृध॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । फेने॑न । नमु॑चेः । शिरः॑ । इ॒न्द्र॒ । उत् । अ॒व॒र्त॒य्चः । विश्वाः॑ । यत् । अज॑यः । स्पृधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां फेनेन नमुचे: शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय: स्पृध: ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । फेनेन । नमुचेः । शिरः । इन्द्र । उत् । अवर्तय्चः । विश्वाः । यत् । अजयः । स्पृधः ॥ ८.१४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे योद्धः ! (नमुचेः) अमोक्तुः शत्रोः (शिरः) उत्तमाङ्गम् (अपां, फेनेन) वारुणास्त्रेण जलवाष्पमयेन (उदवर्तयः) उद्गमयसि (यत्) यदा (विश्वाः, स्पृधः) सर्वान् स्पर्धकान् (अजयः) जयसि ॥१३॥
विषयः
स विघ्नं हन्तीति दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । नमुचेः=अवर्षणरूपस्य अनिष्टस्य । “न मुञ्चति न त्यजतीति नमुचिर्विघ्नोऽनिष्टम्” शिरः=मूर्धानम् । अपाम्=जलस्य । फेनेन=जलसेकेन । उदवर्त्तयः=उद्वर्त्तयसि=छिनत्सि । यद्=यदा । विश्वाः=सर्वाः । स्पृधः=स्पर्धमाना बाधाः । अजयः=जयसि । हे इन्द्र ! यदा त्वं जलवर्षणेन स्थावरान् जङ्गमांश्च जीवान् सन्तोषयसि । तदैव संसारस्य सर्वा बाधा निवारिता भवन्ति । ईदृशं त्वामहं भजे ॥१३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे योद्धा ! आप (नमुचेः) स्वमार्गादिरोधक शत्रु के (शिरः) शिर को (अपाम्, फेनेन) जल के वाष्पादि द्वारा निर्मित वरुणास्त्र से (उदवर्तयः) उड़ा देते हैं (यदा) जब (विश्वाः, स्पृधः) सकल स्पर्धा रखनेवाले प्रतिपक्षियों को (अजयः) जीतने में प्रवृत्त होते हैं ॥१३॥
भावार्थ
जब वह सम्राट् गूढ धनुर्विद्या का आविष्कार करता है, तब ऐसी शक्ति उत्पन्न कर लेता है कि वाष्प द्वारा निर्मित शस्त्रों से संग्राम में आये हुए बड़े-२ शत्रुओं को सहज ही में वशीभूत कर सकता है अर्थात् विद्वान् राजा अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण द्वारा प्रबल शत्रुओं को भी सहज ही में विजय कर लेता है, अतएव राष्ट्रपति धनुर्विद्या के जानने में सदा यत्न करता रहे ॥१३॥
विषय
वह विघ्न हनन करता है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमदेव ! आप (नमुचेः) अवर्षणरूप अनिष्ट और विघ्न का (शिरः) शिर (अपाम्+फेनेन) जल के फेन से अर्थात् जल के सेक से (उदवर्त्तयः) काट लेते हैं । (यद्) जब (विश्वाः) सर्व (स्पृधः) बाधाओं को (अजयः) जीतते हैं । हे इन्द्र ! जब आप जलवर्षण से स्थावर और जङ्गम जीवों को सन्तुष्ट करते हैं, तब ही संसार की सर्व बाधाएँ निवारित होती हैं । ऐसे तुमको मैं भजता हूँ ॥१३ ॥
भावार्थ
जल का भी कारण परमात्मा ही है, ऐसा जानना चाहिये ॥१३ ॥
विषय
दुष्टों के नाश का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! ज्ञान के द्रष्टा ! ( यत् ) जब ( विश्वाः ) समस्त ( स्पृधः ) स्पर्धाओं, द्वेषों और कामनाओं को ( अजयः ) जीत लेता है, तब तू ( अपां ) प्राणों के ( फेनेन ) बल से ( नमुचे: ) न छूटने वाले देह के ( शिरः ) शिरो भाग की ओर ( उत् अवर्त्तयः ) ऊर्ध्व गति करता है। (२) इसी प्रकार राजा जब स्पर्धा से सेनाओं को जीत ले तब ( नमुचे: ) न जीता छोड़ने योग्य शत्रु के शिर या विचार को ( अपां फेनेन ) प्राप्त जनों के उपदेश-बल से ( उत् अवर्त्तयः ) उत्तम मार्ग में प्रवृत्त करावे। अथवा—( शिरः ) शत्रु के शिर अर्थात् प्रमुख भाग को ( अपां फेनेन ) प्रजाओं के हिंसाकारी बल सैन्य से ( उद्-अवर्त्तयः ) उखाड़ दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥
विषय
नमुचि के सिर का उद् वर्तन
पदार्थ
[१] हे इन्द्रजितेन्द्रिय पुरुष ! तू (अपां फेनेन) = कर्मों के वर्धन के द्वारा ही (नमुचेः) = नमुचि के पीछा न छोड़नेवाली [न+मुच्] अहंकार की वासना के (शिरः) = सिर को (उद् अवर्तयः) = उद्वृत्त कर देता है। इस वासनारूप नमुचि के सिर का छेदन कर्मों के वर्धन के द्वारा ही होता है। निरन्तर कर्मों में लगे रहकर ही हम वासना को जीत पाते हैं। [२] यह वह समय होता है (यत्) = जब कि तू (विश्वाः) = सब (स्पृधः) = शत्रु-सैन्यों को (अजय:) = पराजित करनेवाला होता है। काम-क्रोध- लोभ आदि सब अन्तःशत्रुओं का पराभव इस 'अपां फेन'-कर्मवर्धन से ही होता है।
भावार्थ
भावार्थ- निरन्तर कर्मों में लगे रहकर हम अहंभाव से काम-क्रोध-लोभ आदि से ऊपर उठ पाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
When you fight out the adversaries of life and humanity, you crush the head of the demon of drought and famine with the sea mist and the cloud.
मराठी (1)
भावार्थ
जलाचे कारणही परमात्माच आहे हे जाणले पाहिजे. ॥१३॥
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