ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
न ते॑ व॒र्तास्ति॒ राध॑स॒ इन्द्र॑ दे॒वो न मर्त्य॑: । यद्दित्स॑सि स्तु॒तो म॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । व॒र्ता । अ॒स्ति॒ । राध॑सः । इन्द्र॑ । दे॒वः । न । मर्त्यः॑ । यत् । दित्स॑सि । स्तु॒तः । म॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते वर्तास्ति राधस इन्द्र देवो न मर्त्य: । यद्दित्ससि स्तुतो मघम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । ते । वर्ता । अस्ति । राधसः । इन्द्र । देवः । न । मर्त्यः । यत् । दित्ससि । स्तुतः । मघम् ॥ ८.१४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे योद्धः ! (ते, राधसः) तव द्रव्यस्य (वर्ता) वारकः (देवः, न, अस्ति) देवः कश्चिन्नास्ति (न, मर्त्यः) मनुष्योऽपि नास्ति (यत्) यदा (स्तुतः) स्तोत्रे (मघम्, दित्ससि) धनं दित्ससि ॥४॥
विषयः
इन्द्रस्य स्वातन्त्र्यं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वं स्तुतः=प्रार्थितः सन् । यन्मघं=महनीयं पूजनीयं धनं मनुष्येभ्यो दित्ससि=दातुमिच्छसि । ते=तव । तस्य राधसः=राधनीयस्य धनस्य । वर्ता=निवारयिता न देवो न मर्त्योऽस्ति ॥४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे योद्धा ! (ते, राधसः) आपके द्रव्य का (वर्ता) वारक (देवः, न, अस्ति) देव नहीं हो सकता (न, मर्त्यः) मर्त्य=साधारण मनुष्य नहीं हो सकता (यत्) जब आप (स्तुतः) नम्र पुरुष को (मघम्, दित्ससि) धन देना चाहते हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि जो सम्राट् अपनी प्रजा को अन्न तथा धनादि अपेक्षित पदार्थों द्वारा सन्तुष्ट रखता है, उसके कार्य को राष्ट्रिय अल्प राजा तथा प्रजा कोई भी विघ्नित नहीं कर सकता किन्तु सहाय बनकर कार्य को सिद्ध करते हैं अर्थात् जो सम्राट् प्रजापालन तथा प्रजा के सुखोपयोगी कार्यों को सदैव सम्पादित करता रहता है, उसका राज्य निर्विघ्न चिरस्थायी रहता और विघ्न होने पर प्रजाजन उसके सब प्रकार से सहायक होते हैं ॥४॥
विषय
ईश्वर की स्वतन्त्रता दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! तू (स्तुतः) विद्वानों से प्रार्थित होकर (यत्) जो (मघम्) पूजनीय धन मनुष्यों को (दित्ससि) देना चाहता है, (ते) तेरे उस (राधसः) पूज्य धन का दान से (वर्ता) निवारण करनेवाले (न) न तो (देवः) देव हैं और (न) न (मर्त्यः) मरणधर्मी मनुष्य हैं । तू सर्वथा स्वतन्त्र है, अतः हे भगवन् ! जिससे हम मनुष्यों को कल्याणतम हो, वह धन-जन दे ॥४ ॥
भावार्थ
ईश्वर सब कुछ कर सकता है, इससे यह शिक्षा देते हैं । उसका बाधक या निवारक कोई पदार्थ नहीं है ॥४ ॥
विषय
यज्ञमय प्रभु की महिमा ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यशालिन् ! तू ( स्तुतः ) स्तुति किया जाकर ( यत् ) जब ( मघं दित्ससि ) उत्तम ऐश्वर्य देना चाहता है तो ( ते राधसः ) तेरे दिये धन का ( वर्त्ता ) वारण करने वाला ( न देवः न मर्त्यः ) न कोई देव, विद्वान् तेजस्वी है और न साधारण मनुष्य है । तेरा दिया उसे अवश्य प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु का अहिंसित ऐश्वर्य
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (न देवः) = न तो कोई प्राकृतिक शक्ति और (न मर्त्यः) = न ही कोई मनुष्य (ते) = आपके (राधसः) = ऐश्वर्य का, धन का वर्ता निवारक (अस्ति) = है। आपकी ऐश्वर्यशालिनता का किसी से भी प्रतिबन्ध नहीं किया जा सकता। [२] आपके उस ऐश्वर्य का कोई भी निवारण नहीं कर पाता (यत् मघम्) = जिस ऐश्वर्य को (स्तुतः) = स्तुति किये गये आप, इस स्तोता के लिये (दित्ससि) = देने की कामनावाले होते हैं। प्रभु का स्तोता वही है जो प्रभु के निर्देश के अनुसार यज्ञिय कर्मों में प्रवृत्त रहता है। इन कर्म-प्रवृत्त मनुष्यों को प्रभु जीवन के लिये आवश्यक धन अवश्य प्राप्त कराते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तोता के लिये धन प्राप्त कराते हैं, तो इस धन को कोई हिंसित नहीं कर पाता।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, when you are pleased to bless the celebrant with power, prosperity and excellence, then neither mortal nor immortal can restrain the abundant flow of your grace and generosity.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सर्व काही करू शकतो. यावरून ही शिकवण मिळते की, त्याचा बाधक किंवा निवारक कोणताही पदार्थ नाही. ॥४॥
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