ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ळ्हानि॑ दृंहि॒तानि॑ च । स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒वः । दृ॒ळ्हानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ । स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण रोचना दिवो दृळ्हानि दृंहितानि च । स्थिराणि न पराणुदे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । रोचना । दिवः । दृळ्हानि । दृंहितानि । च । स्थिराणि । न । पराऽनुदे ॥ ८.१४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्रेण) सूर्यसदृशो योद्धा (रोचना, दिवः) रोचमानानि अन्तरिक्षस्थानि स्थानानि (दृढानि) स्वयं दृढीकृतानि (दृंहितानि, च) अन्यैः दृढीकारितानि च (स्थिराणि) तथा भूतानि स्थिराणि कृतानि यथा (न, पराणुदे) चालयितुं न शक्ष्यन्ते ॥९॥
विषयः
महिम्नः स्तुतिं दर्शयति ।
पदार्थः
सर्वाधारः परमात्मैवास्तीत्यनया शिक्षते । यथा−दिवः=द्योतमानस्य द्युलोकस्य “दिव इत्युपलक्षणम्” तेन । त्रिलोकस्य । रोचना=रोचमानानि=शोभमानानि पृथिवीस्थानि समुद्रादीनि । अन्तरिक्षस्थानि=मेघप्रभृतीनि द्युलोकस्थानि=सूर्य्यादीनि समस्तानि दीप्यमानानि वस्तूनि । इन्द्रेण=परमात्मना तथा दृढानि कृतानि । च पुनः । दृंहितानि=वर्धितानि येन एतानि । स्थिराणि=स्थास्नूनि=अचलितानि । भूत्वा । न पराणुदे=न विनश्वरशीलानि=न विनाशशालीनि भवेयुरिति ॥९ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्रेण) सूर्यसदृश योद्धा (रोचना, दिवः) रोचमान अन्तरिक्षस्थानों को (दृढानि) स्वयं दृढ़ करता और (दृंहितानि, च) अन्यों से दृढ़ कराता है (स्थिराणि) इस प्रकार से स्थिर करता है, जिससे (न, पराणुदे) शत्रुसमुदाय विचलित नहीं कर सकता ॥९॥
भावार्थ
वह प्रजापालक सम्राट् सूर्य्य के सदृश अपनी शक्ति को व्यापक बनाकर अपनी तथा दूसरे विद्वानों की बुद्धि की सहायता से पर्वतादि उच्चस्थानों में ऐसा दृढ़ दुर्ग बनावे, जिसको प्रतिपक्षी दल विचलित न कर सके ॥९॥
विषय
ईश्वर की महिमा की स्तुति दिखलाते हैं ।
पदार्थ
सर्वाधार वही परमात्मा है, यह इससे शिक्षा देते हैं । यथा−(दिवः) द्युलोक अर्थात् त्रिभुवन के (रोचना) शोभमान पृथिवीस्थ समुद्र आदि अन्तरिक्षस्थ मेघ प्रभृति, द्युलोकस्थ सूर्यादि दीप्यमान समस्त वस्तु इस प्रकार (इन्द्रेण) इन्द्र ने (दृढानि) दृढ की हैं और (दृंहितानि) बढ़ाई हैं, जिससे ये वस्तु (स्थिराणि) स्थिर होकर (न+पराणुदे) न कदापि विनाशशाली हों ॥९ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! महामहाऽऽश्चर्यमय इस जगत् को देखो ! किस आधार पर यह सूर्य्य और पृथिवी आदि ठहरे हुए हैं । क्यों न अपने-२ स्थान से विचलित होकर ये नष्ट हो जाते हैं । हे मनुष्यों ! सबका आधार उसी को जानो और जानकर उसी को पूजो ॥९ ॥
विषय
प्रभु के स्थायी कार्य।
भावार्थ
( इन्द्रेण ) उस ऐश्वर्य के स्वामी, परमेश्वर ने ( दिवः ) भूमि, अन्तरिक्ष और आकाश के ( रोचना ) कान्तियुक्त वा रुचिकारक, नाना पदार्थ (दृढानि) दृढ़ किये और ( दृंहितानि ) बढ़ाये, ( स्थिराणि ) स्थिर, सदा विद्यमान रहने वाले बनाये, ( न परानुदे ) जिससे वे फिर चिरकाल तक नाश न होसकें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥
विषय
स्थिराणि, न पराणुदे
पदार्थ
[१] (इन्द्रेण) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के द्वारा (दिवः) = मस्तिष्करूप द्युलोक की (रोचना) = दीप्तियाँ दृढहानि दृढ़ की जाती हैं (च) = और (दृंहितानि) = वर्धित होती है। प्रभु हमारे ज्ञानों को स्थिर व वर्धित करते हैं। [२] (स्थिराणि) = ये स्थिर ज्ञान (न पराणुदे) = वासनारूप शत्रुओं से धकेलने योग्य नहीं होते। वस्तुतः ज्ञान निर्मल होता है, तो वासना से अभिभूत हो जाता है। प्रबल ज्ञान कभी भी वासनाओं का शिकार नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे मस्तिष्क के ज्ञानों को दृढ़ करते हैं। ये दृढ़ ज्ञान वासना से अभिभूत न होकर वासना को दग्ध करनेवाले होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
The bright and beautiful, blessed and blissful stars and planets of refulgent space, expansive, firm and constant by virtue of the omnipotence of Indra, no one can shake or dislodge from their position of stability.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! महा महा आश्चर्यकारक या जगाला पाहा. कुणाच्या आश्रयाने हा सूर्य, पृथ्वी इत्यादी थांबलेले आहेत. आपापल्या स्थानाहून विचलित होऊन ते नष्ट होत नाहीत. हे माणसांनो! सर्वांचा आधार तोच आहे हे जाणा व जाणून त्याची पूजा करा. ॥९॥
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