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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वा॒वृ॒धा॒नस्य॑ ते व॒यं विश्वा॒ धना॑नि जि॒ग्युष॑: । ऊ॒तिमि॒न्द्रा वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒वृ॒धा॒नस्य॑ । ते॒ । व॒यम् । विश्वा॑ । धना॑नि । जि॒ग्युषः॑ । ऊ॒तिम् । इ॒न्द्र॒ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वावृधानस्य ते वयं विश्वा धनानि जिग्युष: । ऊतिमिन्द्रा वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वावृधानस्य । ते । वयम् । विश्वा । धनानि । जिग्युषः । ऊतिम् । इन्द्र । आ । वृणीमहे ॥ ८.१४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (विश्वा, धनानि, जिग्युषः) सर्वधनानि प्राप्नुवतः (वावृधानस्य) वृद्धस्य (ते) तव (ऊतिम्) रक्षाम् (वयम्, आवृणीमहे) वयं याचामहे ॥६॥

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    विषयः

    रक्षायै प्रार्थना ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ववृधानस्य=सृष्टिकार्य्ये पुनः पुनर्वर्धमानस्य=व्याप्रियमाणस्य । पुनः । विश्वा=विश्वानि=सर्वाणि । धनानि । जिग्युषः=प्राप्तवतः । ते=तव । ऊतिम्=रक्षां वयं सदा । वृणीमहे=प्रार्थयामहे । हे ईश ! यद्यपि सृष्टिरक्षायां स्वयमेव त्वं व्याप्रियमाणोऽसि । एवं सूर्य्यचन्द्रभूप्रभृतीनां महाधनानां त्वमेव स्वामी वर्तसे । यदि तव पालनं जगति न स्यात्तर्हि सर्वं वस्तु विनश्येत् अतस्त्वमेव सृजसि पासि संहरसि च तथापि वयं तव रक्षां याचामहे । आत्मन्यविश्वासात् ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे योद्धा ! (विश्वा, धनानि, जिग्युषः) सर्वविध धनों को जीतकर प्राप्त करनेवाले (वावृधानस्य) सबसे बढ़े हुए (ते) आपकी (ऊतिम्) रक्षा की (वयम्, आवृणीमहे) हम याचना करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का तात्पर्य्य यह है कि जब वह सम्राट् प्रजा के साहाय्य से विजय प्राप्त कर सब ऐश्वर्यों को अपने अधीन कर लेता है, तब सब राष्ट्र उसी के अधीन होकर उसी से अपनी रक्षा सर्वदा चाहते और उसी को अपना स्वामी समझते हैं, अतएव राष्ट्रपति को उचित है कि सर्व प्रकार से राष्ट्र की रक्षा करने तथा उसको सुखपूर्ण करने में सदा यत्नवान् हो ॥६॥

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    विषय

    रक्षा के लिये प्रार्थना ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (ववृधानस्य) सृष्टिकार्य्य में पुनः-२ लगे हुए और उसको सब प्रकार से बढ़ाते हुए और (विश्वा) निखिल (धनानि) धनों के (जिग्युषः) महास्वामी (ते) तेरे निकट (ऊतिम्) रक्षा और साहाय्य के लिये (वयम्) हम उपासकगण (वृणीमहे) प्रार्थना करते हैं । हे ईश ! यद्यपि सृष्टि की रक्षा करने में तू स्वयमेव आसक्त है और सूर्य्य, चन्द्र भूप्रभृति महाधनों का तू ही स्वामी भी है, यदि तेरा पालन जगत् में न हो, तो सर्व वस्तु विनष्ट हो जाय । अतः तू ही बनाता बिगाड़ता और संभालता है । तथापि हम मनुष्य अज्ञानवश और अविश्वास से रक्षा की याचना करते रहते हैं ॥६ ॥

    भावार्थ

    प्रातः और सायंकाल सदा ईश्वर से रक्षार्थ और साहाय्यार्थ प्रार्थना करनी चाहिये ॥६ ॥

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    विषय

    यज्ञमय प्रभु की महिमा ।

    भावार्थ

    ( विश्वा धनानि ) समस्त धनों को ( जिग्युषः ) जीतने वाले और ( वावृधानस्य ) निरन्तर बढ़ने वाले महान् ( ते ) तेरी ( ऊतिं ) रक्षा को ही हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्त ! ( वयं वृणीमहे ) हम वरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥

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    विषय

    सब धनों के विजेता प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (वयम्) = हम (ते) = आपसे प्राप्त कराये जानेवाले (ऊतिम्) = रक्षण को (आवृणीमहे) = वरते हैं। आपके रक्षण को प्राप्त करके ही तो हम सब प्रकार से उन्नति कर सकेंगे। [२] उन आपके रक्षण का हम वरण करते हैं, जो आप (वावृधानस्य) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त हैं तथा उपासकों का सदा वर्धन करनेवाले हैं। तथा (विश्वा धनानि जिग्युषः) = सब धनों का विजय करते हैं। आप ही हमारे लिये इन धनों का विजय करके हमें सदा रक्षण के योग्य बनाते हैं। ये धन ही ठीक प्रकार से उपयुक्त होकर हमारी बुद्धि का हेतु बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के रक्षण का वरण करते हैं। ये प्रभु सदा हमारा वर्धन कर रहे हैं और हमारे लिये धनों का विजय करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, we pray for your power and protection, the lord whose glory rises with the expansive universe and who rule over the entire wealth and power of the worlds of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रात: व सायंकाळी सदैव ईश्वराला रक्षणासाठी व साह्यासाठी प्रार्थना केली पाहिजे. ॥६॥

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