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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒दू॒दरे॑ण॒ सख्या॑ सचेय॒ यो मा॒ न रिष्ये॑द्धर्यश्व पी॒तः । अ॒यं यः सोमो॒ न्यधा॑य्य॒स्मे तस्मा॒ इन्द्रं॑ प्र॒तिर॑मे॒म्यायु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒दू॒दरे॑ण । सख्या॑ । स॒चे॒य॒ । यः । मा॒ । न । रिष्ये॑त् । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । पी॒तः । अ॒यम् । यः । सोमः॑ । नि । अधा॑यि । अ॒स्मे इति॑ । तस्मै॑ । इन्द्र॑म् । प्र॒ऽतिर॑म् । ए॒मि॒ । आयुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋदूदरेण सख्या सचेय यो मा न रिष्येद्धर्यश्व पीतः । अयं यः सोमो न्यधाय्यस्मे तस्मा इन्द्रं प्रतिरमेम्यायु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋदूदरेण । सख्या । सचेय । यः । मा । न । रिष्येत् । हरिऽअश्व । पीतः । अयम् । यः । सोमः । नि । अधायि । अस्मे इति । तस्मै । इन्द्रम् । प्रऽतिरम् । एमि । आयुः ॥ ८.४८.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O soul and spirit of intelligence, let me be friends with soma as with a friend of noble nature and drink it as it would do me no harm. I pray to Indra, lord omnipotent giver of bliss, that the soma which I have drunk in may increase and enrich my life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराला सर्वांनी प्रार्थना करावी की उत्तमोत्तम अन्न खाऊन पिऊन आम्ही बलवान बनावे व लोकांवर उपकार करावे. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अहम् । ऋदूदरेण=मृदूदरेण=उदरस्य अबाधकेन । सख्या=सखिभूतेन सख्येव वा हितकरेण सोमरसेन । सचेय=संगच्छेय । हे हर्य्यश्व=आत्मन् इन्द्रियस्वामिन् ! यः पीतः सन् । मा न रिष्येत्=न मां हिंस्येत् । अयं यः सोमः । अस्मे=अस्मासु । न्यधायि=निहितोऽभूत् । तस्मै=सोमाय । प्रतिरमायुः । इन्द्रमेमि=याचे ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    मैं जैसे (ऋदूदरेण) शरीरहितकारी उदररक्षक (सख्या) मित्रसमान लाभदायक सोमरस को (सचेय) ग्रहण करता हूँ, तद्वत् अन्यान्य जन भी करें । (यः+पीतः) जो पीने पर (मा+न+रिष्येत्) मुझको हानि नहीं पहुँचाता है, वैसे स्वल्प पीने से किसी को हानि न पहुँचावेगा । (हर्य्यश्व) हे आत्मन् ! (अयम्+यः+सोमः) यह जो सोमरस (अस्मे+न्यधायि) हम लोगों के उदर में स्थापित है, वह चिरकाल तक हमें सुखकारी हो (तस्मै+प्रतिरम्+आयुः) उससे आयु अधिक बढ़े, ऐसी (इन्द्रम्+एमि) ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ ॥१० ॥

    भावार्थ

    ईश्वर से सब कोई प्रार्थना करें कि उत्तमोत्तम अन्न खा पीकर हम बलवान् और लोकोपकारी हों ॥१० ॥

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    विषय

    सोम, राजा से प्रार्थना।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( पीतः ) ओषधि रसवत् पान पालन किया जाकर ( मान रिष्येत् ) मेरा विनाश न करे, हे ( हर्यष्व ) उत्तम मनुष्यों को अश्ववत् सन्मार्ग में चलाने वाले राजन् ! ऐसे ( ऋदूदरेण ) मृदु पेट वाले, भीतर कोमल, दयार्द्र स्वभाव वाले ( सख्या सचेय ) मैं मित्र से सदा संगत रहूं। ( यः ) जो ( अयं ) यह ( सोमः ) बलवान्, ऐश्वर्यवान् पुरुष ( अस्मे ) हमारे बीच (निअधायि) नियत किया जाता है, (तस्मै )उसके हितार्थ ही मैं ( प्रतिरम् आयुः ) सुदीर्घ आयु और ( इन्द्रं ऐमि ऐश्वर्य की याचना करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ऋदूर सखा [सोम]

    पदार्थ

    [१] मैं (ऋदरेण) = उदर के अबाधक - उदर को पीड़ित न करनेवाला (सख्या) = इस मित्रभूत सोम से (सचेय) = संगत होऊँ । (यः) = जो सोम (पीतः) = पिया हुआ (मा) = मुझे (न रिष्येत्) = हिंसित न करे । [२] हे (हर्यश्व) = तेजस्वी इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले इन्द्र ! (अयं) = यह (यः) = जो (सोमः) = सोम (अस्मे) = हमारे में न्यधायि स्थापित किया गया है, (तस्मै) = उसके लिए मैं (इन्द्रं) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (प्रतिरं आयुः) = दीर्घजीवन को (एमि) = माँगता हूँ। यह सोम मेरे अन्दर सदा स्थित हुआ-हुआ मुझे दीर्घजीवन प्रदान करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम उदर को बाधा नहीं पहुँचाता। इस प्रकार हमें नीरोग रखता हुआ यह दीर्घजीवी बनाता है।

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    मन्त्रार्थ

    (हर्यश्व) हरि-हरित-हरे रंग की ओषधियाँ अशन करने को दी है जिसने वह तू परमात्मन् ! (ऋदूदरेण सख्या सचेय) ऋदूदर-मृदूदर-मध्य से मृदुतायुक्त मित्र समान सोम के साथ सम्पर्क करू-पान कर समाऊं "ऋदूदर:-सोमो मृदूदर:" (निरु० ६।४) सदा सोम्य आहार किया करें (यः पीतः-मा न रिष्येत्) जो पीया हुआ मुझे न पीडित करे- पीडा न होने दे पीडाओं से बचावे (अयं यः सोमः-अस्मे न्यधायि) यह जो सोम पीया हुआ हमारे अन्दर निविष्ट हो गया- हो जावे (तस्मै प्रतिरम्-आयुः-इन्द्रम्-पमि) उस पीने सोम के लिए सीमपान के प्रतिफल उस तुझ इन्द्र- परमात्मा आयु मांगता हूं ॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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