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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं हि न॑स्त॒न्व॑: सोम गो॒पा गात्रे॑गात्रे निष॒सत्था॑ नृ॒चक्षा॑: । यत्ते॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॒ स नो॑ मृळ सुष॒खा दे॑व॒ वस्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । नः॒ । त॒न्वः॑ । सो॒म॒ । गो॒पाः । गात्रे॑ऽगात्रे । नि॒ऽस॒सत्थ॑ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । यत् । ते॒ । व॒यम् । प्र॒ऽमि॒नाम॑ । व्र॒तानि॑ । सः । नः॒ । मृ॒ळ॒ । सु॒ऽस॒खा । दे॒व॒ । वस्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि नस्तन्व: सोम गोपा गात्रेगात्रे निषसत्था नृचक्षा: । यत्ते वयं प्रमिनाम व्रतानि स नो मृळ सुषखा देव वस्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । नः । तन्वः । सोम । गोपाः । गात्रेऽगात्रे । निऽससत्थ । नृऽचक्षाः । यत् । ते । वयम् । प्रऽमिनाम । व्रतानि । सः । नः । मृळ । सुऽसखा । देव । वस्यः ॥ ८.४८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O soma, you are the protector and promoter of our body and personality. Watcher and leading light of humanity, seep in and energise every part of our body. And if we default on your rules of discipline, even so, O noble friend, generous power superior, be good and gracious to us and help us to be happy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अन्नच शरीराचे पोषण करते. ते प्रत्येक अंगात जाऊन पोषण करते. अन्नाचे व्रत आम्ही मोडतो व नियमपूर्वक शक्तीनुसार भोजन करत नाही. काही वेळा अत्यंत भोजन केल्याने तात्काळ माणूस मरतो. अति भोजनाने अनेक रोग उत्पन्न होतात. अल्प भोजन सदैव हितकारी असते. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    हे सोमदेव ! नोऽस्माकम् । तन्वः=शरीरस्य । त्वं हि । गोपाः=रक्षकः । अतस्त्वम् । गात्रे गात्रे=सर्वेष्वङ्गेषु । निषसत्थ=निषीद । यत्=यद्यपि । ते व्रतानि वयम् । प्रमिनाम=हिंस्मः । तथापि स त्वम् । वस्यः=श्रेष्ठान् । नोऽस्मान् । सुसखेव । मृळ=सुखयस्येव ॥९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (सोमदेव) हे सर्वश्रेष्ठ और प्रशंसनीय रस और अन्न ! (नः) हमारे (तन्वः) शरीर का (गोपाः) रक्षक (त्वम्+हि) तू ही है, इसलिये (गात्रे+गात्रे) प्रत्येक अङ्ग में (निषसत्थ) प्रवेश कर, तू (नृचक्षाः) मानवशरीर का पोषणकर्ता है । (यद्) यद्यपि (वयम्) हम मनुष्यगण (ते+व्रतानि) तेरे नियमों को (प्रमिनाम) तोड़ते हैं तथापि (सः) वह तू (वस्यः) श्रेष्ठ (नः) हम जनों को (सुसखा) अच्छे मित्र के समान (मृळ) सुख ही देता है ॥९ ॥

    भावार्थ

    भाव इसका विस्पष्ट है । अन्न ही हमारे शरीर का पोषक है, इसमें सन्देह नहीं । वह हमारे प्रत्येक अङ्ग में जाकर पोषण करता है । अन्न के व्रतों को हम लोग भग्न करते हैं । इसका भाव यह है कि नियमपूर्वक शक्ति के अनुसार भोजन नहीं करते । कभी-२ देखा गया है कि अतिशय भोजन से तत्काल आदमी मर गया है । अतिभोजन से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । स्वल्प भोजन सदा हितकारी होता है ॥९ ॥

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    विषय

    सोम का व्रत पालन।

    भावार्थ

    हे (सोम ) सर्व-शासक ! राजन् ! ( त्वं ) तू ही ( नः तन्वः ) हमारे शरीरों का ( गोपाः ) रक्षक है। ( गाने-गाने ) अंग २ में वा प्रत्येक शरीरधारी पर तू ( नृ-चक्षा: ) नेता जनों को देखने वाला सर्वसाक्षी के तुल्य (नि-ससत्थ) आसन पर विराज। (वयं) हम ( यत् ), जब २ ( ते व्रतानि प्र-मिनाम ) तेरे व्रतों को नाश करें तब २ हे ( देव ) तेजस्विन् ! ( सः ) वह तू (नः) हमें (मृड) सुधार और सुखी कर और तू ( सु-सखा: ) हमारा उत्तम मित्र होकर हमें ( वस्यः ) उत्तम बना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'रक्षक' सोम

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्य ! (त्वं) = तू (हि) = निश्चय से (नः) = हमारे (तन्वः) = शरीर का (गोपाः) = रक्षक है। (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाला होता हुआ तू (गात्रे गात्रे) = अंग-प्रत्यंग में (निषसत्था) = स्थित होता है। [२] (यत्) = यद्यपि (वयं) = हम कभी-कभी (ते व्रतानि) = तेरे व्रतों को (प्रमिनाम) = हिंसित कर बैठते हैं। तो भी (सः) = वह तू (नः) = हमारे लिए (मृड) = सुख को करनेवाला हो। हे (देव) = प्रकाशमय व रोगों को जीतने की कामनावाले सोम [विजिगीषा] ! तू (सुषखा) = हमारा उत्तम मित्र होता हुआ (वस्यः) = हमें उत्तम वसुओंवाला कर श्रेष्ठ बना।

    भावार्थ

    भावार्थ-अंग-प्रत्यंग में व्याप्त होता हुआ सोम हमारा रक्षक है, यह हमें सुखी करता है, श्रेष्ठ बनाता है।

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    मन्त्रार्थ

    (सोम) हे सोम ! (नः-तन्वः-त्वं हि गोपाः) हमारे शरीर का तू ही रक्षक है (गात्रे गात्रे नृचक्षा:-निषसत्थ) अङ्ग अङ्ग में मनुष्यमात्र का द्रष्टा या चेताने वाला होकर विराज रहा है (यत्) जिससे कि (वयं ते व्रतानि प्रमिनाम) तेरे आदेशों या कर्मों की ओर हम चलते हैं "मिनाति गतिकर्मा" (निघ० २।१४) (सः-न:-मृळ) वह तू हमें सुखी कर (देव सुषखा वस्य:) हे देव तू अच्छा मित्र हमारे अन्दर वसने योग्य श्रेष्ठ वसु है-धन है ॥९॥

    टिप्पणी

    "अलर्ति गच्छति" '( सायणः)'

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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