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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यो न॒ इन्दु॑: पितरो हृ॒त्सु पी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्याँ॑ आवि॒वेश॑ । तस्मै॒ सोमा॑य ह॒विषा॑ विधेम मृळी॒के अ॑स्य सुम॒तौ स्या॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । इन्दुः॑ । पि॒त॒रः॒ । हृ॒त्ऽसु । पी॒तः । अम॑र्त्यः । मर्त्या॑न् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । तस्मै॑ । सोमा॑य । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । मृ॒ळी॒के । अ॒स्य॒ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो न इन्दु: पितरो हृत्सु पीतोऽमर्त्यो मर्त्याँ आविवेश । तस्मै सोमाय हविषा विधेम मृळीके अस्य सुमतौ स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । नः । इन्दुः । पितरः । हृत्ऽसु । पीतः । अमर्त्यः । मर्त्यान् । आऽविवेश । तस्मै । सोमाय । हविषा । विधेम । मृळीके । अस्य । सुऽमतौ । स्याम ॥ ८.४८.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O parents and seniors of wisdom, the soma which is immortal is consumed and absorbed in the hearts and spirits of mortals. For that soma of immortality, we pray with love and homage to divinity and hope we shall abide in peace, pleasure and a settled mind, all which is the gift of this drink of immortality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रेष्ठ खाद्य पदार्थाचा प्रयोग असा करावा की, ज्यामुळे सुख व्हावे व बुद्धी बिघडता कामा नये. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे पितरः ! य इन्दुः=सोमः । हृत्सु पीतः । अमर्त्यः सन् । मर्त्यानस्मान् आविवेश । तस्मै सोमाय हविषा विधेम । अस्य च मृळीके सुमतौ च स्याम ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (पितरः) हे श्रेष्ठ पुरुषो ! (यः+इन्दुः) जो आनन्दप्रद सोमरस (अमर्त्यः) चिरकालस्थायी है और जो (हृत्सु+पीतः) हृदय में पीत होने पर बलवर्धक होता है, जो ईश्वर की कृपा से (नः+मर्त्यान्+आविवेश) हम मनुष्यों को प्राप्त हुआ है, (तस्मै+सोमाय+हविषा+विधेम) उस सोम का अच्छे प्रकार प्रयोग करें और (अस्य) इस प्रयोग से (मृळीके) सुख में और (सुमतौ) कल्याणबुद्धि में (स्याम) रहें ॥१२ ॥

    भावार्थ

    श्रेष्ठ खाद्य पदार्थ का प्रयोग ऐसा करें कि जिससे सुख हो और बुद्धि न बिगड़े ॥१२ ॥

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    विषय

    सोम, व्यापक प्रभु की परिचर्या। (

    भावार्थ

    हे ( पितरः ) पालक गुरुजनो ! ( यः इन्दुः ) जो ऐश्वर्यवान् आर्द्र स्वभाव, ओषधि रसवत् ( पीतः ) पान वा पालन किया जाकर ( मर्त्यः ) दुःखों वा दुष्टों का नाशक होकर आत्मा के तुल्य अमृत होकर ( मर्त्यान् आविवेश ) देहों वा मनुष्यों में प्रविष्ट है, ( तस्मै ) उस ( सोमाय ) सर्वप्रेरक ऐश्वर्यवान् की हम ( हविषा ) उत्तम अन्न वचनादि से (विधेम) परिचर्या करें। उसके ( मृडीके ) सुख और ( सुमतौ ) शुभ ज्ञान उत्तम वाणी में हम सदा ( स्याम ) रहें। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मूडीके सुमतौ

    पदार्थ

    [१] हे (पितरः) = पालक शक्तियो ! (यः इन्दुः) = जो सोम (हृत्सुपीत:) = हृदयों में पिया हुआ- रजकर पिया हुआ - शरीर को अन्दर सुरक्षित किया हुआ (नः मर्त्यान्) = हम मरणधर्मा प्राणियों में आविवेश प्रविष्ट होता है, वह (अमर्त्यः) = हमें अमर बनाता है-अमरता व नीरोगता का कारण बनता है। [२] (तस्मै) = सोमाय इस सोम के रक्षण के लिए हविषा त्यागपूर्वक अदन के द्वारा, यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (विधेम) = हम प्रभु का पूजन करें। यह यज्ञशेष का सेवन व प्रभुपूजन ही हमें सोमरक्षण के योग्य बनाएगा। हम (अस्य) = इस सोम के (मृडीके) = सुख में व (सुमतौ) = कल्याणी मति में (स्याम) = हों। सोम हमें सुखी करे और शुभ बुद्धि प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'त्यागपूर्वक अदन व प्रभुपूजन' सोमरक्षण के साधन हैं। सुरक्षित सोम 'नीरोगता सुख, वसु, बुद्धि' प्राप्त कराता है।

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    मन्त्रार्थ

    (पितरः) हे पालक प्राणो! "प्राणो वै पिता" (निरु० २।३८) (यः-इन्द्र:-अमर्त्यः-हृत्सु पीतः) जो अमृत सोम हृदयों में पीया हुआ धारा हुआ (नः-अमर्त्यान्-आविवेश) हम मनुष्यों में प्रविष्ट हो गया है- हो जाता है (तस्मै सोमाय) उस सोम के लिये (हविषा विधेम) हावभाव उत्साह प्रदर्शित करें (अस्य मृळीके सुमतौ स्याम) इसके इससे प्राप्त सुख में और इससे प्राप्त अच्छी मति में हम रहें ॥१२॥

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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