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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - विराट्जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मे मा॑ पी॒ता य॒शस॑ उरु॒ष्यवो॒ रथं॒ न गाव॒: सम॑नाह॒ पर्व॑सु । ते मा॑ रक्षन्तु वि॒स्रस॑श्च॒रित्रा॑दु॒त मा॒ स्रामा॑द्यवय॒न्त्विन्द॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । मा॒ । पी॒ताः । य॒शसः॑ । उ॒रु॒ष्यवः॑ । रथ॑म् । न । गावः॑ । सम् । अ॒ना॒ह॒ । पर्व॑ऽसु । ते । मा॒ । र॒क्ष॒न्तु॒ । वि॒स्रसः॑ । च॒रित्रा॑त् । उ॒त । मा॒ । स्रामा॑त् । य॒व॒य॒न्तु॒ । इन्द॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे मा पीता यशस उरुष्यवो रथं न गाव: समनाह पर्वसु । ते मा रक्षन्तु विस्रसश्चरित्रादुत मा स्रामाद्यवयन्त्विन्दवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । मा । पीताः । यशसः । उरुष्यवः । रथम् । न । गावः । सम् । अनाह । पर्वऽसु । ते । मा । रक्षन्तु । विस्रसः । चरित्रात् । उत । मा । स्रामात् । यवयन्तु । इन्दवः ॥ ८.४८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These soma drinks, protective of honour, may secure and strengthen my joints as straps secure the chariots at joints, and inspire me to apply myself to noble projects as bullocks draw the chariot to good destinations. These drinks may save me from weakness of character and protect me from depression and disease.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही असे अन्न खावे ज्याद्वारे शरीराचे रक्षण व्हावे, स्फूर्ती व वीरता प्राप्त व्हावी. उत्तेजक मद्य इत्यादी पिऊ नये. ज्यामुळे शुभ चरित्र भ्रष्ट होऊन व्याधी वाढतात. अयोग्य अन्न खाण्यापिण्यामुळेच विविध रोग होतात. त्यासाठी विधिपूर्वक अन्नसेवन करावे. याच कारणाने या सूक्तात अन्नाचे वर्णन केलेले आहे. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोमस्य निरूपणम् ।

    पदार्थः

    इमे । पीताः=सोमाः । यशसः=यशस्कराः । उरुष्यवः= रक्षकाश्च भवन्तु । पुनः । पर्वसु=पर्वणि पर्वणि । समनाह=संनह्यन्तु । अत्र दृष्टान्तः । रथं न गावः । यथा गावः=वृषभः । रथं संनह्यन्ति । ते सोमाः । विस्रसः=विस्रस्तात्=शिथिलात् चरित्रात् । मा=मा रक्षन्तु । उत अपि च । इन्दवः=सोमाः । स्रामाद्=व्याधेः । मा=माम् । आवयन्तु=पृथक् कुर्वन्तु ॥५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सोम का निरूपण करते हैं ।

    पदार्थ

    (इमे+पीताः) ये सोमरस पीत होने पर हमारे (यशसः) यशस्कर और (उरुष्यवः) रक्षक होवें और (पर्वसु) मेरे शरीर के प्रत्येक पर्व में प्रविष्ट हों, (मा) मुझको (समनाह) प्रत्येक वीरकार्य्य में संनद्ध करें । (न) जैसे (रथम्) रथ को (गावः) बलीवर्द सब काम में तैयार रखते हैं । (ते) वे सोम (विस्रसः+चरित्रात्) शिथिल ढीले चरित्र से (मा+रक्षन्तु) मुझको बचावें (उत) और (इन्दवः) आह्लादकर वे सोम (स्रामाद्) व्याधियों से (मा) मुझको (यवयन्तु) पृथक् करें ॥५ ॥

    भावार्थ

    हम मनुष्य ऐसे अन्न खाएँ, जिनसे शरीर की रक्षा, फुर्ती और वीरता प्राप्त होवे । उत्तेजक मद्यादि न पीवें, जिससे शुभ चरित्र भ्रष्ट हो और व्याधियाँ बढ़ें । अन्नों के खान-पान से ही विविध रोग होते हैं, अतः विधिपूर्वक अन्नसेवन करें । इसी कारण इस सूक्त में अन्न का ऐसा वर्णन आया है ॥५ ॥

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    विषय

    सोम, ओषधि-रस के पान के समान ऐश्वर्य, वीर्य, पुत्र शिष्यादि को पालन।

    भावार्थ

    ( इमे ) ये ( पीताः ) पान किये ओषधिरसों के तुल्य पालन किये देह में वीर्य, और राष्ट्र में विद्वान्, गृह में पुत्र, शिष्य और वीर जन (यशसः) वीर्य, बल, और कीर्ति से युक्त ( उरुष्यवः ) रक्षा की कामना करते हुए (गावः रथं न) रथ को अश्वों के समान ( पर्वसु ) पर्व २, पोरु २, खण्ड २ पर ( सम् अनाह ) सुसम्बद्ध सुदृढ़ हों और राष्ट्र के खण्ड को शरीर के पोरु २ के समान सुदृढ़ करें। ( ते ) वे (मा) मुझे (विस्रसः चरित्रात् ) शिथिल आचरण से ( रक्षन्तु ) बचावें। वे ( इन्दवः) दयार्द्र जन ( मा ) मुझे ( स्रामात् यवयन्तु ) व्याधि से भी ओषधिवत् पृथक् करें। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'यश-रक्षण- दृढ़ता व पवित्रता व नीरोगता' का दाता सोम

    पदार्थ

    [१] (इमे ये पीता:) = शरीर के अन्दर पिये गये सोमकण (मा) = मेरे लिए (यशसः) = यशस्कर होते हैं और (उरुष्यवः) = मेरे लिए रक्षा की कामनावाले होते हैं। (न) = जैसे (गावः) = गोस्नायु-निमत रज्जुएँ (रथं) = रथ को (पर्वसु) = पर्वों में, इसी प्रकार ये सोम मुझे (पर्वसु) = शरीर के प्रत्येक पर्व में (समनाह) = सन्नद्ध करते हैं। मेरे प्रत्येक पर्व को ये सुदृढ़ ग्रन्थिवाला करते हैं। [२] (ते) = वे सोम (मा) = मुझे (विस्त्रसः चरित्रात्) = चरित्रभ्रंश से रक्षन्तु बचाएँ (उत) = और (इन्दवः) = ये सोमकण (मा)= मुझे (स्रामाद्) = व्याधि से (यवयन्तु) = पृथक् करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम [१] हमें यशस्वी बनाता है, [२] रोगों से बचाता है, [३] सुदृढ़ शरीर पर्वोंवाला करता है, [४] चरित्रभ्रंश व रोगों से दूर करता है।

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    मन्त्रार्थ

    (इमे यशसः पीता:) ये यशस्कर पीए हुए सोम-परमात्मा के अध्यात्मरस या सोम-ओषधिरस (उरुष्यवः) रक्षा करने वाले हैं "उरुष्यती रक्षाकर्मा” (निरु० ५।२३) तथा (रथं न गावः पर्वसु समनाह) जैसे गोचर्मतन्तु आदि रथ को जोड़ों में सम्यक् बान्ध देते हैं ऐसे मुझे संसक्त हो जाते हो-जाते हैं (ते-इन्दवः-विस्रसः-चरित्रात्-मा रक्षन्तु) वे सोमधाराएं शिथिल चरित्र से मेरी रक्षा करें (उत) और (स्रामात्-यवयन्तु) सद्भाव स्रावक मानस दोष से या रक्तस्राव रोग से पृथक करें ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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