ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 7
इ॒षि॒रेण॑ ते॒ मन॑सा सु॒तस्य॑ भक्षी॒महि॒ पित्र्य॑स्येव रा॒यः । सोम॑ राज॒न्प्र ण॒ आयूं॑षि तारी॒रहा॑नीव॒ सूर्यो॑ वास॒राणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒षि॒रेण॑ । ते॒ । मन॑सा । सु॒तस्य॑ । भ॒क्षी॒महि॑ । पित्र्य॑स्यऽइव । रा॒यः । सोम॑ । राज॑न् । प्र । नः॒ । आयूं॑षि । ता॒रीः॒ । अहा॑निऽइव । सूर्यः॑ । वा॒स॒राणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इषिरेण ते मनसा सुतस्य भक्षीमहि पित्र्यस्येव रायः । सोम राजन्प्र ण आयूंषि तारीरहानीव सूर्यो वासराणि ॥
स्वर रहित पद पाठइषिरेण । ते । मनसा । सुतस्य । भक्षीमहि । पित्र्यस्यऽइव । रायः । सोम । राजन् । प्र । नः । आयूंषि । तारीः । अहानिऽइव । सूर्यः । वासराणि ॥ ८.४८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O bright soma, with stimulated and inspired mind, let us drink at the fount of your exuberant flow like children enjoying on the wealth of their parents. O ruling light of soma divine, pray lengthen our life and rejuvenate our health like the sun lengthening the light of days.
मराठी (1)
भावार्थ
जोपर्यंत भूक लागणार नाही, अन्नासाठी व्याकूळ होणार नाही तोपर्यंत भोजन करता कामा नये. याच अवस्थेत अन्न सुखकारक ठरते व आयुष्य वाढते. सोम (अन्न) यासाठी राजा ठरतो की शरीरात प्रवेश करून तोच तेज निर्माण करतो व सर्व इंद्रियांवर अधिकार ठेवतो. जर अन्न न मिळाले तर सर्व इंद्रिये शिथिल होतात व शरीरही राहणार नाही. त्यासाठी शरीराचा शासक असल्यामुळे अन्न राजा आहे. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे सोम ! वयम् । इषिरेण=इच्छावता । मनसा । ते । सुतस्य । अत्र कर्मणि षष्ठी । त्वां सुतम् । भक्षीमहि=भक्षयेम । दृष्टान्तः । पित्र्यस्येव रायः । यथा पितुरागतं धनं वयं भक्षयामः । हे राजन् सोम ! नोऽस्माकम् । आयूंषि । प्रतारीः=प्रवर्धय । पुनर्दृष्टान्तः । वासराणि=वासयितॄणि । अहानि=दिनानीव सूर्य्यः ॥७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
हे सोम ! (इषिरेण+मनसा) उत्सुक मन से (ते+सुतस्य) तुझ पवित्र अन्न को हम (भक्षीमहि) भोग करें, (पित्रस्य+इव+रायः) जैसे पिता-पितामहादि से प्राप्त धन को पुत्र भोगता है । (सोम+राजन्) हे राजन् सोम ! तू (नः+आयूंषि) हमारी आयु को (प्र+तारीः) बढ़ा । पुनः दृष्टान्त (इव) जैसे (सूर्य्यः) सूर्य्य (वासराणि) वासप्रद (अहानि) दिनों को बढ़ाते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
इसका आशय विस्पष्ट है । जब तक खूब भूख न लगे, अन्न के लिये आकुलता न हो, तब तक भोजन न करे । इसी अवस्था में अन्न सुखदायी होता है और आयु बढ़ती है । सोम राजा इसलिये कहाता है कि शरीर में प्रवेश कर यहीं चमकता है और सब इन्द्रियों पर अधिकार रखता है । यदि अन्न न खाया जाए, तो सब इन्द्रियाँ शिथिल हों जाएँ और शरीर भी न रहे, अतः शरीर का शासक होने से अन्न राजा है ॥७ ॥
विषय
सोम तेजस्वी प्रभु से दीर्घ जीवन की याचना।
भावार्थ
हे ( सोम ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( राजन् ) तेजस्विन् ! प्रभो ! ( सुतस्य ते ) अभिषिक्त हुए तेरा हम ( पित्र्यस्य इव रायः ) माता पिता के धन के समान ( इषिरेण मनसा ) इच्छायुक्त चित्त से ( भक्षीमहि ) भजन, सेवन करें। ( सूर्य: वासराणि अहानि इव ) जगत् को आच्छादन करने वाले दिनों को सूर्य के समान ( नः आयूंषि प्र तारी: ) हमारी आयुओं की वृद्धि कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
'दीर्घजीवन का दाता' सोम
पदार्थ
[१] हे सोम ! वीर्यशक्ते ! (सुतस्य ते) = उत्पन्न हुए हुए तेरा (इषिरेण मनसा) = इच्छावाले मन से (भक्षीमहि) = भक्षण करें-तुझे शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार तेरा भक्षण करें, (इव) = जैसे (पित्र्यस्य रायः) = पिता से प्राप्त धन का उपयोग करते हैं। हम इस सोम को पिता प्रभु से प्राप्त धन समझें। [२] हे (राजन्) = हमारे जीवनों को दीप्त करनेवाले सोम ! (नः) = हमारे (आयूंषि) = जीवनों का (प्रतारी:) = प्रकर्षेण वर्धन करनेवाले होइये। इस प्रकार हमारे जीवनों को बढ़ाओ (इव) = जैसे (सूर्य:) = सूर्य वासराणि जगत् को बसानेवाले (अहानि) = दिनों को बढ़ाता है। सूर्य दिनों का विस्तार करता है, यह सोम [वीर्य] हमारे जीवनकाल का विस्तार करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम को प्रभु से दिया हुआ धन समझें। इस धन का समुचित रक्षण व प्रयोग करें। यह सुरक्षित सोम हमारे दीर्घजीवन का कारण बने ।
मन्त्रार्थ
(राजन् सोम) हे सर्वत्र राजमान परमात्मन् ! या गुणों से सम्पन्न ओषधि सोम ! (इपिरेण मनसा) तेरे अन्दर गमनशील तुझे चाहते हुए तुझे देखने के साधन मनसे (सुतस्य) उपासित या निष्पादित (पित्र्यस्य रायः-इव) पैतृक धन जैसे (ते) तुझ को हम (भक्षिमहि) भज या सेवन करें तू (नः-आयूषि प्रतारी:) हमारी आयुओं को आगे-आगे बढा (सूर्य:-वासराणि इव) सूर्य जैसे दिनों को बढाता है ॥७॥
विशेष
ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)
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