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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    श॒तानी॑का हे॒तयो॑ अस्य दु॒ष्टरा॒ इन्द्र॑स्य स॒मिषो॑ म॒हीः । गि॒रिर्न भु॒ज्मा म॒घव॑त्सु पिन्वते॒ यदीं॑ सु॒ता अम॑न्दिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽअ॑नी॑काः । हे॒तयः॑ । अ॒स्य॒ । दु॒स्तराः॑ । इन्द्र॑स्य । स॒म्ऽइषः॑ । म॒हीः । गि॒रिः । न । भु॒ज्मा । म॒घव॑त्ऽसु । पि॒न्व॒ते॒ । यत् । ई॒म् । सु॒ताः । अम॑न्दिषुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतानीका हेतयो अस्य दुष्टरा इन्द्रस्य समिषो महीः । गिरिर्न भुज्मा मघवत्सु पिन्वते यदीं सुता अमन्दिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽअनीकाः । हेतयः । अस्य । दुस्तराः । इन्द्रस्य । सम्ऽइषः । महीः । गिरिः । न । भुज्मा । मघवत्ऽसु । पिन्वते । यत् । ईम् । सुताः । अमन्दिषुः ॥ ८.५०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Hundreds of great and invincible forces of this lord almighty, protective, promotive and overladen with sustenance, power and prosperity like the pregnant cloud and abundant mountain, shower gifts of desire and fulfilment on the seekers of excellence and grace when the soma creations of the yajnic celebrants please the lord.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी परमेश्वराच्या शक्ती बहुमुखी आहेत तरीही भक्तीने प्रसन्न झालेला ईश्वर, उत्तम ऐश्वर्याची इच्छा करणाऱ्या भक्ताच्या इच्छा पूर्ण करतो. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    यदि जब (सुताः) सम्पादित भक्तिरस (ईम्) इस परम ऐश्वर्य सम्पन्न को (अमन्दिषुः) हर्षित करते हैं तब (अस्य) इस (इन्द्रस्य) परमात्मा की (शतानीकाः) शतमुख (दुष्टराः) अजेय (हेतयः) गतियाँ (मघवत्सु) उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न बनने के इच्छुकों में (महीः) मूल्यवान् (इषः) इष्ट पदार्थों को, (न) जैसे (भुज्मा) पालक (गिरिः) मेघ पृथिवी को वर्षाजल द्वारा सींचता है वैसे देकर सेवा करती हैं॥२॥

    भावार्थ

    यद्यपि परमात्मा की शक्तियाँ बहुमुखी हैं, परन्तु भक्ति से हर्षित भगवान् भी उन्हीं भक्तों की इच्छाएं पूर्ण करते हैं कि जो आदरणीय ऐश्वर्य चाहते हैं॥२॥

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    विषय

    प्रभु का अपार ऐश्वर्य।

    भावार्थ

    ( अस्य इन्द्रस्य ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु की ( शत-अनीका ) सैकड़ों सैन्य, सैकड़ों बल, सैकड़ों मुख, ( हेतयः दुस्तराः ) हनन या दण्ड देने के साधन दुस्तर, अपार, अजेय हैं और इस की ( मही: समिषः ) समस्त भूमियां भी उत्तम अन्न सम्पदाओं से सम्पन्न हैं, ( यदीं ) जब ( सुताः ) नाना उत्पन्न पदार्थ एवं ऐश्वर्यगण ( अमन्दिषुः ) समस्त जीव प्रजागण को हर्षयुक्त, प्रसन्न करते हैं तब प्रतीत होता है कि वही ( भुज्मा ) सबका पालक परमेश्वर ( गिरिः न ) मेघ वा पर्वत के समान महान् उदार होकर ( मघवत्सु ) पूज्य धनवानों में (पिन्वते ) ऐश्वर्यं की मानो वर्षा किया करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शतानीका हेतयः

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस (इन्द्रस्य) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु के (हेतयः) = हनन साधन आयुध (शतानीकाः) = सैंकड़ों सैन्यों के समान सबल हैं अतएव (दुष्टरा:) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं। इन आयुधों से शत्रु बच नहीं पाते। इस प्रभु की (सम् इषः) = हमारे साथ संगत होनेवाली प्रेरणाएँ (महीः) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रेरणाओं को न सुनने पर ही हम पथभ्रष्ट होते हैं और प्रभु की हेतियों से दण्डित होते हैं । [२] वे प्रभु (भुज्मा) = सबका पालन करनेवाले हैं। (गिरिः न) = [गृणाति] एक उपदेष्टा के समान (मघवत्सु) = यज्ञशील पुरुषों में (पिन्वते) = ज्ञान व ऐश्वर्य का वर्षण करते हैं, (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए सोम (अमन्दिषुः) = हमें आनन्दित करनेवाले होते हैं, अर्थात् यदि हम सोमरक्षण द्वारा जीवन को उल्लासमय बनाते हैं, तो प्रभु से ज्ञान व ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की प्रेरणाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं इनका उल्लङ्घन करने पर हम प्रभु के हननसाधन आयुधों से बच नहीं पाते और जब प्रभु से उत्पन्न किये गये सोमकणों का हम रक्षण करते हैं तो प्रभु हमारे लिए ज्ञान व ऐश्वर्य का वर्षण करनेवाले होते हैं।

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