ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 9
ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
ए॒ताव॑तस्ते वसो वि॒द्याम॑ शूर॒ नव्य॑सः । यथा॒ प्राव॒ एत॑शं॒ कृत्व्ये॒ धने॒ यथा॒ वशं॒ दश॑व्रजे ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताव॑तः । ते॒ । व॒सो॒ इति॑ । वि॒द्याम॑ । शू॒र॒ । नव्य॑सः । यथा॑ । प्र । आवः॑ । एत॑शम् । कृत्व्ये॑ । धने॑ । यथा॑ । वश॑म् । दश॑ऽव्रजे ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतावतस्ते वसो विद्याम शूर नव्यसः । यथा प्राव एतशं कृत्व्ये धने यथा वशं दशव्रजे ॥
स्वर रहित पद पाठएतावतः । ते । वसो इति । विद्याम । शूर । नव्यसः । यथा । प्र । आवः । एतशम् । कृत्व्ये । धने । यथा । वशम् । दशऽव्रजे ॥ ८.५०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord omnipotent, shelter home of the universe, adorable and worshipped, thus do we know you, thus do we celebrate your glory, as you protect the man of action and advancement when the battle of existence begins for him, and as you promote the man of self control to seek fulfilment of his mind and senses while his life lasts in the human body.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या स्तुत्य सामर्थ्याद्वारे गतिशील साधकाला आपली इतिकर्तव्यता = सफलता प्राप्त होते व त्याद्वारेच संयमी साधक आपल्या शक्तीच्या रक्षणार्थ आश्रयस्थान निर्माण करतो. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शूर) प्रेरणा के द्वारा दोष का नाश करने वाले परमेश्वर! (वसो) सब को वास देने वाले! (ते) आपके (एतावतः) इतने (नव्यसः) वन्दनीय सामर्थ्य को हम (विद्याम) जानें और प्राप्त करें कि (यथा) जिस तरह (कृत्व्ये धने) कर्त्तव्य सफलता की प्राप्ति के लिए (एतशम्) गमनकुशल साधक की (प्रावः) प्रकृष्टता से रक्षा हो और (दशवजे) दसों इन्द्रियों के आश्रय के निर्माण हेतु (वशम्) संयमी साधक की (प्रावः) सम्यक्तया रक्षा हो॥९॥
भावार्थ
भगवान् के स्तुत्य सामर्थ्य के द्वारा गतिशील साधक सफलता प्राप्त करता है और उसके द्वारा ही संयमी साधक अपनी इन्द्रिय शक्तियों की रक्षार्थ आश्रय स्थान बनाता है॥९॥
विषय
प्रभु और उपासक जन।
भावार्थ
वे ( वसो ) सबको बसाने हारे ! सब में बसने वाले प्रभो ! स्वामिन् ! हे ( शूर ) दुष्टों के नाशक ! तू ( यथा ) जिस धन से या जितने ऐश्वर्य से ( कृत्व्ये धने ) करने योग्य संग्राम के अवसर पर ( एतशं ) अश्वसैन्यों को ( प्रावः ) अच्छी प्रकार रक्षा करता और ( यथा दशव्रजे) जैसे दशों दिशाओं में दश मार्ग वाले नगर में जितना ऐश्वर्य ( वशं ) वशकारी नगर के अध्यक्ष राजा ( प्रावः ) सन्तुष्ट करे हम ( नव्यसः ते ) अति स्तुति योग्य तेरे ( एतावतः ) इतने भारी ऐश्वर्य का ( विद्याम ) लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'एतश व वश' का रक्षण
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले ! (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले ! (नव्यसः ते) = स्तुति के योग्य आपके (एतावतः) = इतने ऐश्वर्य को विद्याम प्राप्त करें। [२] (यथा) = जिस प्रकार आप (कृत्व्ये धने) = पुरुषार्थ से करने योग्य धन के होने पर (एतशं) = इस दीप्त व पवित्र पुरुष को (प्रावः) = रक्षित करते हैं और (यथा) = जैसे (दशव्रजे) = दसों इन्द्रियों को संयम के बाड़े में रोकने पर (वशं) = इस वशी- जितेन्द्रिय-पुरुष को आप रक्षित करते हैं। हमें भी आप इस एतश और वश की तरह रक्षित करिये।
भावार्थ
भावार्थ- हम पुरुषार्थ से धनार्जन करते हुए पवित्र व दीप्त जीवनवाले बनें। दसों इन्द्रियों को संयम बाड़े में निरुद्ध करके वशी बनें। इस प्रकार हम प्रभु द्वारा रक्षा के पात्र हों।
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