ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यदीं॑ सु॒तास॒ इन्द॑वो॒ऽभि प्रि॒यमम॑न्दिषुः । आपो॒ न धा॑यि॒ सव॑नं म॒ आ व॑सो॒ दुघा॑ इ॒वोप॑ दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ई॒म् । सु॒तासः॑ । इन्द॑वः । अ॒भि । प्रि॒यम् । अम॑न्दिषुः । आपः॑ । न । धा॒यि॒ । सव॑नम् । मे॒ । आ । व॒सो॒ इति॑ । दुघा॑ऽइव । उप॑ । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीं सुतास इन्दवोऽभि प्रियममन्दिषुः । आपो न धायि सवनं म आ वसो दुघा इवोप दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ईम् । सुतासः । इन्दवः । अभि । प्रियम् । अमन्दिषुः । आपः । न । धायि । सवनम् । मे । आ । वसो इति । दुघाऽइव । उप । दाशुषे ॥ ८.५०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
When the flowing drops of yajnic homage of soma please and exhilarate this dear lord, then, O lord of wealth, excellence and grace, like the showers of rain and generous cow, pray bless the invocation, homage and oblations of the yajna with plenty for the generous yajamana.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे शुद्ध जल व दूध देणाऱ्या गाईचे दूध भौतिक यज्ञाची आवश्यक उपकरणे आहेत, तसेच ऐश्वर्यसाधक प्रेरणा सफल करण्यासाठी भक्तांद्वारे सुसंपादित सौम्य गुण आवश्यक आहेत. त्यापासूनच ईश्वर प्रसन्न होऊन त्याला प्रेरणा देतो. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यदि) जब (सुतासः) भक्त के द्वारा निष्पन्न (इन्दवः) आनन्दकर सोमगुण [सोमो वा इन्दुः-श० २, २, ३. २३] (ईम्) इस (प्रियम्) प्रिय नितान्त ऐश्वर्यवान् प्रभु को (अमन्दिषुः) प्रसन्न कर दें तो प्रभु से भक्त की प्रार्थना है कि हे (वसो) बसानेवाले! (दाशुषे मे) आपको अपना सब कुछ अर्पित करनेवाले मुझ भक्त के लिये वे सोम गुण, (आपः न) जैसे कि जल तथा (दुघाः इव) जैसे कि दुधारू गायें (सवनम्) यज्ञ के अर्थ धारण की जाती हैं वैसे, (सवनम्) यज्ञसाधक प्रेरणा को धारण (आ उप धायि) कराएं॥३॥
भावार्थ
जिस प्रकार शुद्ध जल व दुधारू गौओं का दूध भौतिक यज्ञ के आवश्यक उपकरण हैं, वैसे ही ऐश्वर्य साधक प्रेरणा को सफलता देने के लिये भक्त के द्वारा सुसम्पादित सौम्य गुण जरूरी हैं--उनसे ही भगवान् आह्लादित होकर उसे प्रेरणा देते हैं॥३॥
विषय
प्रभु और उपासक जन।
भावार्थ
( सुतासः इन्दवः ) उत्पन्न हुए, ये ऐश्वर्ययुक्त, वा आर्द्र, ओषधि रसवत् आनन्दमय जीवगण, ( यदि ) जब ( प्रियम् अमन्दिषुः ) अपने प्रिय प्रभु को प्रसन्न कर लेते हैं तब हे ( वसो ) सबको बसाने हारे ! ( दाशुषे दुधाः इव ) यज्ञशील वा घास आदि देने वाले स्वामी के लिये दुधार गौवों के समान वा ( सवनं ) अभिषेकार्थ ( आपः न ) जलधाराओं के समान उन सबको ( मे उप आ धायि ) मेरे लिये प्राप्त कराओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सोमरक्षण से 'प्रभुस्तवन-यज्ञशीलता पूरणता'
पदार्थ
[१] (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (सुतासः इन्दवः) = उत्पन्न हुए हुए सोमकण (प्रियम् अभि) = उस प्रिय प्रभु को लक्ष्य करके (अमन्दिषुः) = स्तुति में प्रवृत्त होते हैं। अर्थात् इन सोमकणों का रक्षक प्रीति को अनुभव करता हुआ प्रभुस्तवन में प्रवृत्त होता है। उस समय (आपः न) = इन रेतःकणों के समान [आपः रेतो भूत्या ] (मे) = मेरे अन्दर (सवनं) = यज्ञ का (धायि) = धारण होता है। यह सोमरक्षक पुरुष यज्ञशील बनता है। [२] हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो! उपदाशुषे आपके समीप अपना अर्पण करनेवाले के लिए ये सोमकण (आदुघाः इव) = समन्तात् पूरण करनेवाले से होते हैं। प्रभु के सान्निध्य से सोम का रक्षण होता है। रक्षित सोम हमारी कमियों को दूर करके पूरण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण [१] हमें प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला बनाता है। [२] इससे हम यज्ञशील बनते हैं और [३] ये हमारी कमियों को दूर करके हमारा पूरण करते हैं।
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