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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्र वी॒रमु॒ग्रं विवि॑चिं धन॒स्पृतं॒ विभू॑तिं॒ राध॑सो म॒हः । उ॒द्रीव॑ वज्रिन्नव॒तो व॑सुत्व॒ना सदा॑ पीपेथ दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वी॒रम् । उ॒ग्रम् । विवि॑चिम् । ध॒न॒ऽस्पृत॑म् । विऽभू॑तिम् । राध॑सः । म॒हः । उ॒द्रीऽइ॑व । व॒ज्रि॒न् । अ॒व॒तः । व॒सु॒ऽत्व॒ना । सदा॑ । पी॒पे॒थ॒ । दा॒शुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वीरमुग्रं विविचिं धनस्पृतं विभूतिं राधसो महः । उद्रीव वज्रिन्नवतो वसुत्वना सदा पीपेथ दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वीरम् । उग्रम् । विविचिम् । धनऽस्पृतम् । विऽभूतिम् । राधसः । महः । उद्रीऽइव । वज्रिन् । अवतः । वसुऽत्वना । सदा । पीपेथ । दाशुषे ॥ ८.५०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I pray to Indra, brave, illustrious, discriminative, giver of wealth and excellence and all majestic, for greatness of honour and success. O lord of thunderbolt, action and justice, like an over-flowing spring of generosity, you bless the liberal giver with ample wealth of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाने सदैव अशा ऐश्वर्याची कामना व प्रार्थना करावी की, जी त्याला सन्मानपूर्वक समृद्ध करील. परमेश्वराचे साधन, त्याच्या शक्ती विविध व अभेद्य आहेत. तो भक्ताला सदैव पूर्ण, संतुष्ट व पुष्ट ठेवतो. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    यह ऐश्वर्यसाधक भक्त (वीरम्) सब दुःखों को दूर कर देने वाले, (उग्रम्) तेजस्वी (विश्वम्) विवेकशील, (धनस्पृतम्) सफलता-दाता ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाले, परम ऐश्वर्यवान् प्रभु से (महः) आदरणीय (राधसः) संसिद्धि का कारणभूत ऐश्वर्य (प्र प्रार्थये) चाहता है। हे (वज्रिवन्) बहुत से प्रशंसनीय एवं (वज्रवत्) दृढ़ साधनों वाले परमात्मा! (उद्री अवतः इव) जैसे जलपूरित कुआँ अपने जल से सब को सन्तुष्ट करता है वैसे आप (दाशुषे) अपने को समर्पित किये भक्त को सदा सर्वदा (पीपेथ) सन्तृप्त करते हैं॥६॥

    भावार्थ

    साधक सदैव ऐसे ऐश्वर्य की कामना एवं प्रार्थना करे कि जो उसको सन्मानपूर्वक समृद्धि दे, भगवान् के साधन, उसकी शक्तियाँ विविध एवं अभेद्य हैं--वह भक्त को सदा भरा पूरा, संतुष्ट व पुष्ट रखता है॥६॥

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    विषय

    प्रभु और उपासक जन।

    भावार्थ

    हम ( महः राधसः ) बड़े भारी धनैश्वर्य के स्वामी ( वीरम् ) वीर, ( उग्रं ) बलवान्, ( विविचिं ) न्यायपूर्वक विवेक करने वाले ( धन-स्पृतम् ) धन से प्रजादि को पूर्ण और पालन करने वाले, ( विभूतिम् ) विशेष सामर्थ्यवान्, परमेश्वर की हम सदा स्तुति करते हैं । हे ( वज्रिन ) वीर्यवन् ! तू (उद्रीव) गर्दन ऊपर उठाये पराक्रमी के समान ( अवतः ) जगत् की रक्षा करने हारा, ( वसुत्वना ) अपने बड़े ऐश्वर्य के द्वारा ही ( दाशुषे पीपेथ ) आत्मसमर्पक भक्त का पालन करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'जलपूर्ण कूप के समान' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हम (वीरम्) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले, (उग्र) = तेजस्वी, (विविचिम्) = विवेकशील, (धनस्पृतं) = धन से सबको प्रीणित करनेवाले, (महः राधसः) = महान् ऐश्वर्यों की (विभूतिम्) = विशिष्ट भूति [ऐश्वर्य] वाले प्रभु को (प्र) [ उपसेदिम] = प्रकर्षेण उपासित करनेवाले हों। [२] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो! आप (उद्रीवः अवतः) = जलपूर्ण कूप के समान हैं। सदा सबके लिए जलों को प्राप्त कराता हुआ कुआँ खाली नहीं हो जाता। वह जैसे सबको जल देता है, इसी प्रकार हे प्रभो ! आप (सदा) = सदा (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए आत्मसमर्पण करनेवाले पुरुष के लिए (वसुत्वना) = वसुओं के द्वारा (पीपेथ) = आप्यायन करनेवाले होते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु जलपूर्ण कूप के समान हैं। श्रम के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति प्रभु से धनरूप जल को प्राप्त कर पाता है।

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