ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ न॒: सोमे॑ स्वध्व॒र इ॑या॒नो अत्यो॒ न तो॑शते । यं ते॑ स्वदाव॒न्त्स्वद॑न्ति गू॒र्तय॑: पौ॒रे छ॑न्दयसे॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । सोमे॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रे । इ॒या॒नः । अत्यः॑ । न । तो॒श॒ते॒ । यम् । ते॒ । स्व॒दा॒ऽव॒न् । स्वद॑न्ति । गू॒र्त्यः॑ । पौ॒रे । छ॒न्द॒य॒से॒ । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ न: सोमे स्वध्वर इयानो अत्यो न तोशते । यं ते स्वदावन्त्स्वदन्ति गूर्तय: पौरे छन्दयसे हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । सोमे । सुऽअध्वरे । इयानः । अत्यः । न । तोशते । यम् । ते । स्वदाऽवन् । स्वदन्ति । गूर्त्यः । पौरे । छन्दयसे । हवम् ॥ ८.५०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of the holy yajna of creation, come to our soma yajna, reaching like the constant flow of joy where soma flows and pleases. O lord most generous and connoisseur of taste, the songs of praise please you, and while the soma flows you delight in our adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक सर्वहितकारी कर्म अर्थात् यज्ञात परमेश्वराचे साह्य निरंतर प्रवाहित होणाऱ्या झऱ्यातील जलाप्रमाणे आम्हाला तृप्त करत आहे. जर पूर्ण स्वार्थी जीवन जगणाऱ्या व्यक्तीही प्रभूच्या अनवरत कृपेच्या झऱ्यात स्नान करतील तर किती चांगले होईल? ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (स्वध्वर) शोभित अहिंसक व्यवहारों के प्रेरक प्रभु! (नः) हमारे (सोमे) सकल, गुणों, ऐश्वर्यों व कल्याण आदि को सम्पन्न करने वाले, यज्ञ कर्म के अवसर पर (इयानः) पहुँचते हुए आप (अत्यः न) निरन्तर गमनशील प्रवाह की भाँति (तोशते) रिसते हैं। हे (स्वदावन्) भोग्य-पदार्थों का आस्वादन कराने वाले (यम्) जिस (ते) आपकी (हवम्) प्रार्थना का (गूर्तयः) उद्यमशील प्रजा (स्वदन्ति) स्वादपूर्वक भोग करती हैं उस वन्दना को (पौरे) अपनी पेट भरने के स्वभाव वाले स्वार्थी की ओर भी (छन्दयसे) आगे बढ़ा॥५॥
भावार्थ
हर एक सर्वहितकारी कर्म या यज्ञ में भगवान् की सहायता सतत बहने वाले झरने के जल की भाँति हमें तृप्त करती है; क्या ही अच्छा हो कि निरा स्वार्थ भरा जीवन व्यतीत करने वाले आदमी भी प्रभु की इस सतत स्यन्दमान कृपा के झरने में नहाएं॥५॥
विषय
प्रभु और उपासक जन।
भावार्थ
हे ( स्वदावन् ) उत्तम अन्न वा कर्म फल के देने हारे ! ( यं ) जिस (ते) तेरे दिये को ( गूर्त्तयः ) उद्यमी, स्तुतिकर्त्ता जन उत्तम रूप से सुखपूर्वक भोगते हैं हे ऐश्वर्ययन् स्वामिन् ! ( तोशते ) हिंसाकारी शत्रु को दमन करने के लिये ( इयानः ) गमन करने वाले ( अत्यः ) अश्वारोही के समान तू ( नः स्वध्वरे सोमे ) हमारे उत्तम यज्ञ वा हिंसारहित और अहिंसित ऐश्वर्य के निमित्त (पौरे) नाना प्रजाओं के समूह की ( हवं छन्दयसे ) स्तुति को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर। इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
गूर्तयः पौराः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! आप (नः) = हमारे (सोमे) = सोमरक्षण के होने पर तथा (स्वध्वरे) = उत्तम हिंसारहित कर्मों के होने पर (इयानः अत्यः न) = प्रेरित किये जाते हुए अश्व के समान (आ तोशते) = समन्तात् शत्रुओं का विनाश करते हैं। जैसे अश्वारोही से प्रेरित अश्व शत्रुसैन्य पर आक्रमण करता है, इसी प्रकार प्रभु हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। [२] हे (स्वदावन्) = सम्पत्तियों के देनेवालो प्रभो ! (यं) = जिस (ते) = आपके इस सोम का (गूर्तयः) = उद्यमशील लोग (स्वदन्ति) = आनन्द अनुभव करते हैं, उद्यमशील (पौरे) = पालन व पूरण करनेवाले लोगों में ही आपके (हवं) = पुकार को (छन्दयसे) = चाहते हैं। इन पौरों से की जानेवाली प्रार्थना ही आपको प्रिय होती है। श्रमशीलता हमें सोमरक्षण के योग्य बनाती है। रक्षित सोम से हम अपना पूरण करनेवाले 'पौर' बनते हैं। इन पौरों की आराधना ही प्रभु को प्रिय होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर व हिंसारहित कर्मों में लगाने पर प्रभु हमारे शत्रुओं को विनष्ट कर डालते हैं। श्रमशीलता से सोमरक्षण करता हुआ अपना पूरण करनेवाला व्यक्ति ही प्रभु का प्रिय होता है।
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