ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 7
ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यद्ध॑ नू॒नं प॑रा॒वति॒ यद्वा॑ पृथि॒व्यां दि॒वि । यु॒जा॒न इ॑न्द्र॒ हरि॑भिर्महेमत ऋ॒ष्व ऋ॒ष्वेभि॒रा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ह॒ । नू॒नम् । प॒रा॒ऽवति॑ । यत् । वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । दि॒वि । यु॒जा॒नः । इ॒न्द्र॒ । हरि॑ऽभिः । म॒हे॒ऽम॒ते॒ । ऋ॒ष्वः । ऋ॒ष्वेभिः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ध नूनं परावति यद्वा पृथिव्यां दिवि । युजान इन्द्र हरिभिर्महेमत ऋष्व ऋष्वेभिरा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ह । नूनम् । पराऽवति । यत् । वा । पृथिव्याम् । दिवि । युजानः । इन्द्र । हरिऽभिः । महेऽमते । ऋष्वः । ऋष्वेभिः । आ । गहि ॥ ८.५०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord omnipotent and omniscient, whether you are in a far off place or close by on earth or far above in the light of heaven round the sun, come, lord of grandeur and divine wisdom, with all your innate divine powers of cosmic dynamism. O lord most attainable and sublime, come with instant elevations of the spirit and bless us.
मराठी (1)
भावार्थ
वास्तविक परमेश्वर तर सदैव सर्वत्र विद्यमान आहे. त्याचे जाणे-येणे होत नाही, परंतु साधनहीन साधकाला त्याचे सायुज्य प्राप्त होत नाही. त्याची प्रभूला प्रार्थना आहे की, त्याला त्या ज्ञानसाधिका इन्द्रियशक्ती प्राप्त व्हाव्यात ज्यांच्याद्वारे ईश्वराचे सायुज्य प्राप्त व्हावे. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (महेमते) पूज्य बुद्धि के धनी प्रभु! (यत् ह) जहाँ कहीं भी, (परावति) सुदूर देश में, (पृथिव्याम्) धरती पर, (दिवि) अन्तरिक्ष में (नूनम्) निश्चित रूप से आप वर्तमान तो हैं ही। हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! [आप जहाँ कहीं भी हैं, वहीं से] हे (ऋष्व) प्राप्तियोग्य भगवन्! (ऋष्वेभिः) ज्ञान साधिका (हरिभिः) अपनी हरणशील शक्तियों सहित (युजानः) संयुक्त हुए (आ गहि) आइये॥७॥
भावार्थ
यों तो भगवान् सदैव सर्वत्र मौजूद है--उसका आना-जाना होता ही नहीं, परन्तु साधनहीन साधक को उसका सायुज्य प्राप्त नहीं हो पाता। उसकी प्रभु से प्रार्थना है कि उसे वे साधन, ज्ञानसाधिका इन्द्रिय शक्तियाँ प्राप्त हों जिनसे भगवान् का सायुज्य मिले॥७॥
विषय
प्रभु और उपासक जन।
भावार्थ
( यत् ह नूनं परावति ) जो तू परम दूर भी है, ( यद्-वा पृथिव्यां ) वा जो तू पृथिवी पर और ( दिवि घ नूनं ) सूर्य या महान् आकाश में भी सर्वत्र व्यापक है तू भी हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् । हे ( महेमते ) महाज्ञानिम् ! तू (ऋष्वः ) सब से महान् है । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( हरिभिः युजानः ) विद्वान् मनुष्यों द्वारा और ( ऋष्वेभिः ) अपने महान् गुणों करके ( युजानः ) योग द्वारा चिन्तन किया जाकर हमें ( नूनं ) शीघ्र ही ( आ गहि ) प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उत्तम शरीर, उत्तम मस्तिष्क व मोक्षलोक
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो आप हैं, वे (ह) = निश्चय से (नूनं) = शीघ्र [Immedi- ate] (परावति) = उस सुदूर मोक्षलोक के निमित्त (यद् वा) = अथवा (पृथिव्यां) = इस शरीररूप पृथिवी के निमित्त, (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक के निमित्त (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों के द्वारा शरीररथ को (युजान:) = जोतते हुए (आगहि) = हमें प्राप्त होइये। आप से प्राप्त कराई गई ये इन्द्रियाँ ही हमें 'उत्तम शरीर उत्तम मस्तिष्क व मोक्षलोक' को प्राप्त कराने का साधन बनती हैं। [२] हे (महेमते) = महान् बुद्धिवाले व (ऋष्व) = सर्वोत्तम प्रभो! आप (ऋष्वेभिः) = महत्त्वपूर्ण उत्कृष्ट इन्द्रियों के साथ हमें प्राप्त होइये । आपसे प्राप्त कराई गई ये उत्कृष्ट इन्द्रियाँ ही हमें उत्कृष्ट लोक को प्राप्त करानेवाली होंगी।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो! आप हमें उत्कृष्ट इन्द्रियाँ प्राप्त कराइये। इनके द्वारा ठीक मार्ग का आक्रमण करते हुए हम शरीर व मस्तिष्क को उत्कृष्ट बनाकर मोक्षलोक को प्राप्त करेंगे।
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