ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 16
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अधु॑क्षत्पि॒प्युषी॒मिष॒मूर्जं॑ स॒प्तप॑दीम॒रिः । सूर्य॑स्य स॒प्त र॒श्मिभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअधु॑क्षत् । पि॒प्युषी॑म् । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । स॒प्तऽप॑दीम् । अ॒रिः । सूर्य॑स्य । स॒प्त । र॒श्मिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधुक्षत्पिप्युषीमिषमूर्जं सप्तपदीमरिः । सूर्यस्य सप्त रश्मिभि: ॥
स्वर रहित पद पाठअधुक्षत् । पिप्युषीम् । इषम् । ऊर्जम् । सप्तऽपदीम् । अरिः । सूर्यस्य । सप्त । रश्मिऽभिः ॥ ८.७२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May the lord of faith and power accept the offering of nourishing food and energy through seven stages of nature’s evolution, and by seven-rayed chemistry of the sun turn it into showers of spiritual fulfilment for the yajaka.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभू सृष्टीच्या विभिन्न पदार्थांचे दोहन करून जणू जीवाला विविध प्रकारची ऊर्जा प्रदान करत आहे, ज्याद्वारे प्राण्यांचे जीवन चालते. प्रगतिशील उपासकाने या संकेताद्वारे सृष्टीच्या विविध पदार्थांद्वारे उपयोग करून घ्यावा. ॥१६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अरिः) परमेश्वर (सप्तपदीम्) सात अवयवों की इस सृष्टि का दोहन (सूर्यस्य) सूर्य की (सप्तरश्मिभिः) सात तरह की किरणों के द्वारा कर (पिप्युषीम्) पुष्टिकारक (इषम्) अन्न तथा (ऊर्जम्) उसकी सारभूत ओजस्विता को (अधुक्षत्) निकालता है। [अरि ऋच्छति इति अरिः ईश्वरः नि० ५-७। (सप्तपदीम्) पृथिवी-जल-अग्नि-वायु-विराट्-परमाणु-प्रकृति नाम के सात पदार्थों से युक्त]॥१६॥
भावार्थ
भगवान् सृष्टि के विभिन्न पदार्थों का दोहन कर मानव को विविध प्रकार की ऊर्जा प्रदान करते हैं, जिससे प्राण-जीवन चलता है। प्रगतिशील उपासक इस संकेत से सृष्टि के भाँति-भाँति के पदार्थों का उपयोग करना सीखे॥१६॥
विषय
देह में वीर्यवत् राजा की स्थिति।
भावार्थ
( अरिः ) वेग से चलने वाला वायु जिस प्रकार ( सूर्यस्य सप्त रश्मिभिः ) सूर्य के वेग से आने वाले सात किरणों द्वारा ( पिप्युषीम् ) पुष्टिकारक ( इषम् ) अन्न और ( ऊर्जं ) रस को ( सप्तपदीम् ) सर्पणशील चरण वाली अन्तरिक्षस्थ गौ रूप मेघ को ( अधुक्षत् ) दोहता है। इसी प्रकार ( अरिः ) स्वामी, ( सूर्यस्य सप्त रश्मिभिः ) तेजस्वी व्यवस्थापक के बनाये सात मर्यादाओं द्वारा, ( सप्त पदीम् ) सर्पणयुक्त पदों वाली, अर्थात् जनों से बसी भूमि से (पिप्युषीम् इषं ऊर्जं ) पुष्टिकारक अन्न और पुष्ट बल का ( अधुक्षत् ) दोहन करता है। प्रजा में अन्न, बल की वृद्धि करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
इषम्, ऊर्जम्, सप्तपदीम्
पदार्थ
[१] (अरि:) = [ऋ गतौ ] यह निरन्तर गतिशील उपासक (पिप्युषीम्) = आप्यायन करनेवाले- वर्धन करनेवाले अन्न को ही अपने में (अधुक्षत्) = प्रपूरित करता है। इस अन्न का सेवन करता हुआ यह (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को प्राप्त करता है। [२] यह [अरि=] क्रियाशील पुरुष (सूर्यस्य सप्त रश्मिभिः) = सूर्य की सातों किरणों के सम्पर्क में रहता हुआ (सप्तपदीम्) = 'भूः भुव, स्व, मह:, जनः, तपः, सत्यम्' - 'स्वास्थ्य ज्ञान - जितेन्द्रियता - हृदय की विशालता-विकास-तप व सत्य' रूप सात पदों को [अधुक्षत् ] = प्रपूरित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक बनकर सूर्य किरणों के सम्पर्क में जीवन बिताते हुए हम उत्तम अन्न का सेवन करें और अपने अन्दर बल व प्राणशक्ति का दोहन करें। इस जीवन में हम 'स्वास्थ्य- ज्ञान- जितेन्द्रियता- उदारता-विकास-तप व सत्य' का धारण करें।
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