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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 4
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    जा॒म्य॑तीतपे॒ धनु॑र्वयो॒धा अ॑रुह॒द्वन॑म् । दृ॒षदं॑ जि॒ह्वयाव॑धीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒मि । अ॒ती॒त॒पे॒ । धनुः॑ । व॒यः॒ऽधाः । अ॒रु॒ह॒त् । वन॑म् । दृ॒षद॑म् । जि॒ह्वया॑ । आ । अ॒व॒धी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जाम्यतीतपे धनुर्वयोधा अरुहद्वनम् । दृषदं जिह्वयावधीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जामि । अतीतपे । धनुः । वयःऽधाः । अरुहत् । वनम् । दृषदम् । जिह्वया । आ । अवधीत् ॥ ८.७२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, immanent, friendly and rising as the sun, heats up the sky, bearing health and energy for nourishment, it rides the vapours of water and with its catalytic energy breaks the cloud.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याच्या तापाने अंतरिक्षातील वायू उत्तप्त होतो व तो ताप दूर दूर भूमीपर्यंत पोचून ठिकठिकाणच्या आर्द्रतेला बाष्पात परिणत करून मेघाच्या रूपात एकत्र करतो. पुन्हा तेच मेघ छिन्नभिन्न होऊन वृष्टीत परिणत होऊन अन्नाच्या उत्पादनाचे कारण बनतात. याच कारणाने अंतरिक्षातील अग्नी ‘वयोधा:’ (अन्न उत्पत्ती करणारा सूर्य) आहे. ॥४॥

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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    अन्तरिक्ष स्थित अग्नि, सूर्य (जामि) सर्व अतिशयी (धनुः) अन्तरिक्ष को (अतीतपे) अत्यधिक तपाता है; पुनश्च (वयोधाः) अन्न प्रदाता वह सूर्य (वनम्) अन्तरिक्ष स्थित जल को (अरुहत्) बढ़ाता है व (जिह्वया) अपने ग्रहणसाधन किरण समूह से (दृषदम्) पत्थर की तरह कठोर बादल को (अवधीत्) छिन्न-भिन्न करता है॥४॥

    भावार्थ

    सूर्य ताप से अन्तरिक्ष स्थित वायु उत्तप्त होती है और वह ताप दूर भूमि तक पहुँचकर जहाँ-तहाँ की आर्द्रता को वाष्प में बदल कर मेघ रूप में एकत्र करता है और फिर वही बादल छिन्न-भिन्न हो वर्षा में परिणत होकर अन्न उत्पादन का कारण बनता है। इसीलिए अन्तरिक्षस्थ अग्नि 'वयोधाः' है॥४॥

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    विषय

    विद्युत् का रथयान में प्रयोग।

    भावार्थ

    अग्नि, विद्युत् ( जामि ) अति अधिक ( अतीतपे ) तप्त होता है और ( धनुः ) आकाश में ही ( वयोधाः ) बल को धारण करता हुआ, ( वनम् अरुहत् ) जल में रहता है, वह ( दृषदं ) मेघ को या शिला को भी ( जिह्वया ) अपनी जिह्वा, ज्वाला या धारा से ही ( अवधीत् ) आघात करता है और तोड़ डालता है। इसी प्रकार यह सामान्य अग्नि भी अति तप्त होकर ही ( धनुः वयोधाः ) अरणी की ओविली में धनुष् या डोरी द्वारा बल पाकर काष्ठ को पकड़ लेता है और जिह्वा अर्थात् चिनगारी द्वारा शिला पर आघात करता है। वह पत्थर तक को फोड़ देता है। इसी प्रकार जब अग्निवत् तेजस्वी पुरुष ( वयोधाः ) बल और अपनी पर्याप्त यौवनावस्था को धारण कर ( जामि अतीतपे ) खूब तप्त होता, तपस्या कर लेता है, बल धारण करता है और धनुष के बल पर ( वनम् अरुहत् ) सैन्य बल का सर्दार बनता, उस पर शासन करता या ऊंचे आसन पर बैठता है, तब वह (जिह्वया) अपनी वाणी के बल से ही ( दृषदं अवधीत् ) पाषाण के समान चकनाचूर कर देने वाले पर-पक्ष के सैन्य वा क्षत्रियगण को भी ( अवधीत् ) नाश कर सकता है। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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