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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    नि ति॒ग्मम॒भ्यं१॒॑शुं सीद॒द्धोता॑ म॒नावधि॑ । जु॒षा॒णो अ॑स्य स॒ख्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । ति॒ग्मम् । अ॒भि । अं॒शुम् । सीद॑त् । होता॑ । म॒नौ । अधि॑ । जु॒षा॒णः । अ॒स्य॒ । स॒ख्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तिग्ममभ्यं१शुं सीदद्धोता मनावधि । जुषाणो अस्य सख्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तिग्मम् । अभि । अंशुम् । सीदत् । होता । मनौ । अधि । जुषाणः । अस्य । सख्यम् ॥ ८.७२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the hota, offerer of oblations, come and sit close to the fire in bright flames, loving and honouring at heart the friendship of this Agni.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    होत्याने उच्च आसनावर बसून ईश्वराचे ध्यान करावे. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    होतृकार्य्यं दर्शयति ।

    पदार्थः

    होता । अस्येश्वरस्य । सख्यं+जुषाणः=सेवमानः सन् । मनौ+अधि=मनुष्याणामुपरि स्थाने आसने । तिग्मम् । अंशुम्=अग्निमभि । निसीदत्=उपविशतु ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    होतृकार्य दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (होता) होता नाम के ऋत्विक् (अस्य+सख्यम्) ईश्वर की मित्रता प्रार्थना और यज्ञसम्बन्धी अन्यान्य व्यापार (जुषाणः) करते हुए (मनौ+अधि) जहाँ सब बैठे हों, उससे उच्च आसन पर (तिग्मम्+अंशुम्) तीव्र अंशु अर्थात् अग्निकुण्ड के (अभि) अभिमुख होकर (निषीदत्) बैठे ॥२ ॥

    भावार्थ

    होता कुछ उच्च आसन पर बैठ ईश्वर का ध्यान करे ॥२ ॥

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    विषय

    गुरु का सप्रेम शासन।

    भावार्थ

    ( तिग्मं अंशुं अभि ) तीक्ष्ण, व्यापक ज्ञानवान् पुरुष के सम्मुख ( होता ) ज्ञान के ग्रहण कराने वाला पुरुष ( मनौ अधि) मनन शील शिष्य के ऊपर ( नि सीदत् ) विराजे और वह ( अस्य सख्यं जुषाणः ) इसके प्रेम भाव को प्राप्त करने वाला हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    होतृत्व व प्रभु की मित्रता

    पदार्थ

    [१] यह (होता) = यज्ञशील पुरुष (तिग्मं अंशुम् अभि) = अग्नि की तेज़ दीप्ति [ ज्वाला] के सामने (मनौ अधि) = उस ज्ञानपुञ्ज प्रभु के अधिष्ठतृत्व में (निसीदत्) = आसीन होता है। प्रभुस्मरण करता हुआ यज्ञ को करता है। [२] यह होता (अस्य) = इस प्रभु की (सख्यम्) = मित्रता का (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता है। यज्ञ के द्वारा ही तो हम प्रभु के प्रिय बन पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करते हुए अग्नि में आहुति देनेवाले बनें। यह होता बनना ही हमें प्रभु का प्रिय बनाएगा।

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