ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 18
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒तो न्व॑स्य॒ यत्प॒दं ह॑र्य॒तस्य॑ निधा॒न्य॑म् । परि॒ द्यां जि॒ह्वया॑तनत् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तो इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । यत् । प॒दम् । ह॒र्य॒तस्य॑ । नि॒ऽधा॒न्य॑म् । परि॑ । द्याम् । जि॒ह्वया॑ । अ॒त॒न॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उतो न्वस्य यत्पदं हर्यतस्य निधान्यम् । परि द्यां जिह्वयातनत् ॥
स्वर रहित पद पाठउतो इति । नु । अस्य । यत् । पदम् । हर्यतस्य । निऽधान्यम् । परि । द्याम् । जिह्वया । अतनत् ॥ ८.७२.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And then let the devotee with holy voice celebrate and glorify this state of divine fulfilment, promised of Agni, destined for man, unto heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रेमपूर्वक प्रभूची उपासना करणाऱ्या भक्ताला ईश्वराचा बोध प्रतिफलाच्या रूपाने प्राप्त होतो. तो ईश्वरविषयक बोध, ते प्रतिफल तो आपल्यासाठी संगृहित करून ठेवत नाही तर त्याचा सर्वत्र प्रचार करतो. ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उतो) और फिर (अस्य हर्यतस्य) प्रभु के प्रेम उपासक का (यत्) जो (निधान्यम्) संग्रह योग्य (पदम्) प्रतिफल था उसे विद्वान् उपासक (जिह्वया) वाणी से (द्यां परि) सारे आकाश व वायुमण्डल में (आतनत्) फैलाता है॥१८॥
भावार्थ
प्रेमसहित प्रभु की उपासना करने वाले भक्त को भगवान् का बोध प्रतिफल के रूप में मिलता है; उस को, ईश्वर विषयक प्रबोध को, वह अपने लिये संग्रहीत करके नहीं रखता। इसके स्थान पर उसका अपने वातावरण में सर्वत्र प्रचार करता है॥१८॥ अष्टम मण्डल में बहत्तरवाँ सूक्त व सतरहवाँ वर्ग समाप्त॥
विषय
अग्निवत् नायक विद्वान् का कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अस्य ) इस ( हर्यतस्य ) कान्तिमान् अग्नि या सूर्य का ( यत् पदं ) जो पद या स्थान ( नि-धान्यम् ) भूमि पर विशेष धन वा धान्य के योग्य है, उसको अग्नि ही ( द्यां परि ) समस्त आकाश में अपनी ( जिह्वया ) ज्वालामयी जीभ से ( परि तनत् ) फैलाता है। इसी प्रकार जो इस राजा का ऐश्वर्ययोग्य पद है उसको यह नायक विद्वान् अपनी वाणी द्वारा विस्तृत कर। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
निधान्यं पदम्
पदार्थ
[१] (उत उ) = और निश्चय से (अस्य) = इस, गतमन्त्र के अनुसार, सोम का रक्षण करनेवाले (हर्यतस्य) = गतिशील व प्रभुप्राप्ति की कामनावाले पुरुष का (यत् पदं) = जो पद होता है वह (निधान्यम्) = उस विश्व के पर निधान को प्राप्त करानेवाला होता है। यह अपने सब कर्मों को इस प्रकार करता है कि प्रभु की ओर बढ़ता चलता है। [२] यह (जिह्वया) = अपनी जिह्वा से (द्याम्) = ज्ञान को (परि अतनत्) = चारों ओर फैलानेवाला होता है। स्वयं जितेन्द्रियता से सोम का रक्षण करता हुआ ज्ञान को बढ़ाता है और ज्ञान का प्रसार करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की ओर ही चलनेवाले बनें तथा ज्ञान का विस्तार करनेवाले हों। यह गोपवन- ज्ञान की वाणियों का द्वारा पवित्रता को करनेवाला होता है। काम, क्रोध, लोभ से ऊपर उठ जाने से 'आत्रेय' होता है। 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सातों को संयमरज्जु से बाँधने वाला यह 'सप्तवधि' है। यह अश्विनौ का आराधन करता है-
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