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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 10
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒ह उ॒ग्राय॑ त॒वसे॑ सुवृ॒क्तिं प्रेर॑य शि॒वत॑माय प॒श्वः । गिर्वा॑हसे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य पू॒र्वीर्धे॒हि त॒न्वे॑ कु॒विद॒ङ्ग वेद॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हे । उ॒ग्राय॑ । त॒वसे॑ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । प्र । ई॒र॒य॒ । शि॒वऽत॑माय । प॒श्वः । गिर्वा॑हसे । गिरः॑ । इन्द्रा॑य । पू॒र्वीः । धे॒हि । त॒न्वे॑ । कु॒वित् । अ॒ङ्ग । वेद॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मह उग्राय तवसे सुवृक्तिं प्रेरय शिवतमाय पश्वः । गिर्वाहसे गिर इन्द्राय पूर्वीर्धेहि तन्वे कुविदङ्ग वेदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महे । उग्राय । तवसे । सुऽवृक्तिम् । प्र । ईरय । शिवऽतमाय । पश्वः । गिर्वाहसे । गिरः । इन्द्राय । पूर्वीः । धेहि । तन्वे । कुवित् । अङ्ग । वेदत् ॥ ८.९६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O man, set in motion the long range visionary process of uprooting the evil tendencies with songs of divinity for the sake of the great, lustrous, mighty and most beneficent and peaceable Indra, the inner soul. Collect and offer profuse voices of holy exhilaration and exhortation in honour of the divine lord of song and, O dear as breath of life, he would bless you with ample gifts of health, progeny and prosperity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा साधक मधुरवाणीने केलेल्या स्तुतिवचनांद्वारे आपल्या आत्म्याला दुष्कर्मांपासून पृथक राहण्याची प्रेरणा करील तेव्हा निश्चयपूर्वक जीवात्मा उग्र, बलवान व अधिकात अधिक कल्याणकारी बनेल. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे साधक! तू (महे उग्राय) नितान्त तेजस्वी, (तवसे) बलवान्, (पश्वः) दृष्टिशक्तियुक्त द्विपाद व चतुष्पाद सभी के (शिवतमाय) अधिकतम कल्याणकारी (इन्द्राय) अपने आत्मा हेतु (सुवृक्तिम्) सुष्ठुतया दुष्कर्म छोड़ने की क्रिया की (प्रेरय) प्रेरणा दे। हे साधक! (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् आत्मा हेतु (पूर्वीः) बहुत सी (गिरः) स्तुतियाँ (धेहि) धार। [परिणामतः] (तन्वे) [कुल विस्तारक] पुत्र या स्व शरीर के लिये (कुवित्) प्रचुर ऐश्वर्य (वेदत्) पा॥१०॥

    भावार्थ

    जिस समय साधक स्व आत्मा को दुष्कर्मों से अलग रहने की प्रेरणा मधुरवाणी से किये स्तुति वचनों से करेगा तो निश्चित ही यह जीवात्मा उग्र, बलवान् तथा अधिकतम कल्याणकारी होगा॥१०॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( महे उग्राय ) बड़े बलवान् (तवसे) शक्तिशाली, (शिवतमाय ) अतिसुखदायक (पश्वः च शिवतमाय ) समस्त पशु तक का कल्याण करने वाले ( गिर्वाहसे ) वाणियों और स्तुतियों को स्वीकार करने वाले ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् प्रभु के लिये ( अङ्ग ) हे विद्वन् ! तू ( सुवृक्तिं प्रेरय ) उत्तम स्तुति कर। हे विद्वन् ! तू उसी के लिये ( पूर्वीः गिरः धेहि ) पूर्व की नित्य वाणियों को धारण कर। वही (तन्वे) हमारे शरीर और बृहत् राष्ट्र के लिये ( कुवित् वेदत् ) बहुत सुखैश्वर्य प्रदान करता है। इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्तवन- स्वाध्याय

    पदार्थ

    [१] (महे उग्राय) = उस महान् तेजस्वी, तवसे शक्तिशाली, (पश्वः शिवतमाय) = पशु तक का कल्याण करनेवाले, (गिर्वाहसे) = ज्ञान की वाणियों का वहन करनेवाले (इंन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (सुवृक्ति) = शोभन स्तुति को प्रेरित करो। [२] उस प्रभु की प्राप्ति के लिये (पूर्वी: गिरः धेहि) = पालन व पूरण करनेवाली या सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली इन वाणियों का धारण कर । वे प्रभु (तन्वे) = शक्तियों के विस्तार के लिये (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब (वेदत्) = धन प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-उस महान् तेजस्वी प्रभु के लिये हम स्तवन करनेवाले बनें। साथ पालन व पूरण करनेवाली ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करें। प्रभु हमारे लिये आवश्यक धनों को अवश्य प्राप्त करायेंगे।

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