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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 17
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं ह॒ त्यद॑प्रतिमा॒नमोजो॒ वज्रे॑ण वज्रिन्धृषि॒तो ज॑घन्थ । त्वं शुष्ण॒स्यावा॑तिरो॒ वध॑त्रै॒स्त्वं गा इ॑न्द्र॒ शच्येद॑विन्दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । अ॒प्र॒ति॒ऽमा॒नम् । ओजः॑ । वज्रे॑ण । व॒ज्रि॒न् । धृ॒षि॒तः । ज॒घ॒न्थ॒ । त्वम् । शुष्ण॑स्य । अव॑ । अ॒ति॒रः॒ । वध॑त्रैः । त्वम् । गाः । इ॒न्द्र॒ । शच्या॑ । इत् । अ॒वि॒न्दः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदप्रतिमानमोजो वज्रेण वज्रिन्धृषितो जघन्थ । त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं गा इन्द्र शच्येदविन्दः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । अप्रतिऽमानम् । ओजः । वज्रेण । वज्रिन् । धृषितः । जघन्थ । त्वम् । शुष्णस्य । अव । अतिरः । वधत्रैः । त्वम् । गाः । इन्द्र । शच्या । इत् । अविन्दः ॥ ८.९६.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You, virile commander of thunderous strength, most daring hero, by your virile and thunderous force of personality you won unequalled lustre and dignity. With your deadly weapons, you overcame the ravages of famine, deprivation and exploitation, and with your courage and conscientious action you won lands and cows and conquered your own carnal self.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीरधारी जीवात्म्याला वीर्याद्वारेच ओजस्विता प्राप्त होते व पुन्हा जीवनयात्रेत मिळालेल्या सर्व संघर्ष साधनांच्या साह्याने तो आपल्या इंद्रियांना वशमध्ये ठेवू शकतो. ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) वीर्यवान्! (त्वं ह) निश्चय ही तूने (त्यत्) वह (अप्रतिमानम्) अनुपम (ओजः) ओज, (वज्रेण) वीर्य से (धृषितः) विजयी हो (जघन्थ) प्राप्त किया था। (त्वम्) तूने (वधत्रैः) संघर्ष साधनों के द्वारा (शुष्णस्य) शोषक के ओज को (अव+अतिरः) जीता तथा (त्वम्) तूने, (इन्द्र) हे इन्द्र! (शच्या) स्व ज्ञान एवं कर्तृत्व के द्वारा (गाः) ज्ञान तथा कर्म इन्द्रियों को पाया है॥१७॥

    भावार्थ

    देहधारी जीवात्मा को वीर्य के द्वारा ही ओजस्विता प्राप्त होती है और फिर जीवन यात्रा में मिले संघर्ष साधनों के सहयोग से वह स्व इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है॥१७॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( वज्रिन् ) बलशालिन् ! (त्वं ह) तू ही ( वज्रेण ) अपने शस्त्रबल से ( धृषितः ) शत्रु को पराजय करने में समर्थ हो कर ( अप्रतिमानम् यत् ओजः ) उस निरुपम शन्नु के बल को (जघन्थ ) विनाश कर अथवा ( हन्तिर्गत्यर्थः। त्यत् अप्रतिमानम् ओजः जघन्थ ) तू निरुपम, सर्वोपरि पराक्रम को प्राप्त कर। (त्वं) तू (वधत्रैः) वध करने के साधनों से (शुष्णस्य अवातिरः) प्रजा के शोषक दुष्ट का नाश कर। और ( त्वं ) तू हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( शच्या इत् ) शक्ति और आज्ञा के बल से ही ( गाः अविन्दः ) सब भूमियों को अपने अधीन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शुष्णासुर वध व गो प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिन्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए इन्द्र ! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस (अप्रतिमानम्) = निरूपम-अतिप्रबल (ओजः) = शुष्णासुर के ओज को, वासना के बल को (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (धृषितः) = संग्राम में शत्रुहनन में कुशल होता हुआ जघन्थ नष्ट करता है। [२] इसके ओज को नष्ट करता हुआ (त्वम्) = तू (वधत्रै:) = हनन साधन आयुधों से (शुष्णस्य अवातिर:) = इस शुष्णासुर का अपने शिकार को सुखा देनेवाली काम-वासना का वध कर डालता है। इस प्रकार हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (शच्यः) = अपनी शक्ति व प्रज्ञान से (इत्) = निश्चयपूर्वक (गाः अविन्दः) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करता है। कामविध्वंस से ही ज्ञान प्राप्त होता है। काम ही तो सदा ज्ञान को आवृत किये रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम क्रियाशीलता के द्वारा वासना को विनष्ट करें और ज्ञान को प्राप्त करनेवाले हों ।

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