ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अति॑विद्धा विथु॒रेणा॑ चि॒दस्त्रा॒ त्रिः स॒प्त सानु॒ संहि॑ता गिरी॒णाम् । न तद्दे॒वो न मर्त्य॑स्तुतुर्या॒द्यानि॒ प्रवृ॑द्धो वृष॒भश्च॒कार॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ऽविद्धा । वि॒थु॒रेण॑ । चि॒त् । अस्रा॑ । त्रिः । स॒प्त । सानु॑ । सम्ऽहि॑ता । गि॒री॒णाम् । न । तत् । दे॒वः । न । मर्त्यः॑ । तु॒तु॒र्या॒त् । यानि॑ । प्रऽवृ॑द्धः । वृ॒ष॒भः । च॒कार॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अतिविद्धा विथुरेणा चिदस्त्रा त्रिः सप्त सानु संहिता गिरीणाम् । न तद्देवो न मर्त्यस्तुतुर्याद्यानि प्रवृद्धो वृषभश्चकार ॥
स्वर रहित पद पाठअतिऽविद्धा । विथुरेण । चित् । अस्रा । त्रिः । सप्त । सानु । सम्ऽहिता । गिरीणाम् । न । तत् । देवः । न । मर्त्यः । तुतुर्यात् । यानि । प्रऽवृद्धः । वृषभः । चकार ॥ ८.९६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With staggering missile he pierced thrice seven mountain peaks in succession. Neither divine nor human can ever do what the mighty hero in the state of exaltation has at a stroke achieved.
मराठी (1)
भावार्थ
उन्नतीच्या मार्गात येणारी विघ्ने नष्ट करून जेव्हा माणूस पुढे जातो तेव्हा त्याची प्रबलता पाहून आश्चर्य वाटते. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(गिरीणाम्) वृत्रों के शरीरों "उन्नति मार्ग में विद्यमान नाना प्रकार के विघ्नों के] तस्य वृत्रस्य एतच्छरीरं यद्गिरयो यदश्मानः। (संहिता) एकत्रित (त्रिः x सप्त) २१ (सानु) शिखरवत् वर्तमान ऊँचे होकर बाधाएं डालने वाली भावनाओं को (विथुरेण) दुःखदायी (अस्त्रा) अस्त्र से, पीड़क शक्ति के द्वारा (अतिविद्धा) बेध दिया। इस प्रकार (प्रवृद्धः) शक्ति सम्पन्न (वृषभः) प्रबल व्यक्ति ने (यानि) जो किये (तत्) वैसे कार्य (न) न तो कोई (देवः) दिव्यशक्तियुक्त (तुतुर्यात्) करे और (न) न कोई (मर्त्यः) व्यक्ति ही कर सके॥२॥
भावार्थ
मानव जब उन्नति के मार्ग में आने वाले विघ्नों को नष्ट कर आगे बढ़ता है, तो उसकी प्रबलता को देखकर आश्चर्य होता है॥२॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
( विथुरेण चित् अस्त्रा ) व्यथादायी आघातकारी और इतस्ततः प्रक्षेप या सञ्चालन में समर्थ शक्ति द्वारा ( अतिविद्धा ) खूब पीड़ित या ताड़ित होकर ( सप्त त्रिः ) इकीसों तत्व ( गिरीणाम् ) भस्मवत् एक दूसरे को निगल जाने वाले, इधर उधर वा पर्वत मेघादिवत् भारी और ( सानु ) स्वरूप ( संहिता ) एकत्र संबद्ध हो जाते हैं। ( तत् ) उनको ( न देवः ) न कोई अन्य तेजस्वी तत्व ( न मर्त्यः ) न जीव ही ( तुतुर्यात् ) इस प्रकार कर सकता है, ( यानि ) जिन को ( प्रवृद्धः ) बड़ा, शक्तिशाली और ( वृषभः ) बलवान् प्रभु ( चकार ) कर लेता है। ( २ ) इसी प्रकार अकेला प्रबल राजा २१ सौ राजाओं को प्रबल सैन्य से पराजित करता है, ऐसा अन्य कोई नहीं कर पाता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
अविद्या पर्वत के २१ शिखरों का वेधन
पदार्थ
[१] इस इन्द्र के द्वारा (गिरीणाम्) = अविद्या पर्वतों के (संहिता) = अतिदृढ़ (त्रिः सप्त) = इक्कीस (सानु) = शिखर (विथुरेण चित्) = निश्चय से शत्रुओं के लिये (व्यथा) = कर (अस्ता) = क्रियाशीलतारूप अस्त्र के द्वारा (अतिविद्धा) = अतिशयेन विद्ध किये जाते हैं। स्थान व समय के दृष्टिकोण से अविद्या इक्कीस भागों में विभक्त है। १२ मास व ६ ऋतुएँ समय को सूचित करती हैं तथा तीन लोक [पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक] स्थान को । इन के विषय में अज्ञान ही गिरि हैं। इनके शिखरों का भेदन क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा ही होता है। [२] इन अविद्यापर्वत भेदन आदि (यानि) = जिन कर्मों को (प्रवृद्धः) = जितेन्द्रियता द्वारा प्रवृद्ध शक्तिवाला (वृषयः) = चकार यह प्रजाओं पर सुखों का वर्षण करनेवाला इन्द्र करता है, (तत्) = उस कर्म को (न देवः) = न कोई देव व (न मर्त्यः) = न ही मनुष्य (तुतुर्यात्) = हिंसित कर पाता है। इन्द्र के इन प्रजा हितकारी कर्मों में आधिदैविक व आधिभौतिक आपत्तियाँ नहीं आतीं।
भावार्थ
भावार्थ - एक जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा अविद्या का विनाश करता है। तथा प्रवृद्ध शक्तिवाला बनकर ज्ञान प्रसार द्वारा लोगों पर सुखों का वर्षण करता है। इसके इस कर्म में आधिदैविक व आधिभौतिक विघ्न नहीं आते।
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