ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 12
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तद्वि॑विड्ढि॒ यत्त॒ इन्द्रो॒ जुजो॑षत्स्तु॒हि सु॑ष्टु॒तिं नम॒सा वि॑वास । उप॑ भूष जरित॒र्मा रु॑वण्यः श्रा॒वया॒ वाचं॑ कु॒विद॒ङ्ग वेद॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वि॒वि॒ड्ढि॒ । यत् । ते॒ । इन्द्रः॑ । जुजो॑षत् । स्तु॒हि । सु॒ऽस्तु॒तिम् । न॒म॒सा । वि॒वा॒स॒ । उप॑ । भू॒ष॒ । ज॒रि॒तः॒ । मा । रु॒व॒ण्यः॒ । श्रा॒वया॑ । वाच॑म् । कु॒वित् । अ॒ङ्ग । वेद॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्विविड्ढि यत्त इन्द्रो जुजोषत्स्तुहि सुष्टुतिं नमसा विवास । उप भूष जरितर्मा रुवण्यः श्रावया वाचं कुविदङ्ग वेदत् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । विविड्ढि । यत् । ते । इन्द्रः । जुजोषत् । स्तुहि । सुऽस्तुतिम् । नमसा । विवास । उप । भूष । जरितः । मा । रुवण्यः । श्रावया । वाचम् । कुवित् । अङ्ग । वेदत् ॥ ८.९६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O man, do that and enter there where Indra desires you to be. Worship the lord adorable and serve him with homage and praise. O celebrant, sanctify yourself and be close to him, never feel sorry and depressed. Send up your prayers so that he may listen. O dear friend, would he not listen and bless?
मराठी (1)
भावार्थ
साधकाने आत्मसंयमाद्वारे प्रथम आपल्या इंद्रियावर संयम करून त्यांना बलवान बनवावे व पुन्हा आपल्या आत्मसंयमी जीवाचे प्रिय कार्य करावे. या प्रकारे साधकाला परमप्रभूंचे सान्निध्य प्राप्त होते व त्याच्या ऐश्वर्यामुळे त्याला कोणत्याही पदार्थाचा अभाव राहत नाही. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे साधक! (तत्) उस [कर्म] में (विविड्ढि) उस कृत्य में व्याप्त हो कि (यत्) जो (ते) तेरा (इन्द्रः) इन्द्रियवशी [जीव] (जुजोषत्) भली भाँति चाहता है। (सुष्टुतिम्) शुभगुणवाहिका स्तुतिवाले प्रभु की (स्तुहि) वन्दना कर और उसी की (नमसा) विनयपूर्वक (विवास) सेवा कर। हे (जरितः) साधक! (उपभूष) उसके पास रह; (मा रुवण्यः) ऐसा करने पर तुझे पश्चात्ताप न होगा। (वाचम्) उसे स्वकथ्य (श्रावय) सुना; इस भाँति हे (अंग) प्रियस्तोता! तू (कुवित्) नितान्त ऐश्वर्य (वेदत्) प्राप्त कर॥१२॥
भावार्थ
साधक को आत्मसंयम से पहले अपनी इन्द्रियों को संयत कर उन्हें बलवान् बनाना चाहिये और फिर अपने आत्मसंयमी जीव के प्रिय कार्य करने चाहिये। इस प्रकार साधक परम प्रभु का सान्निध्य पा जाता है और उसकी देखरेख में वह किसी पदार्थ का अभाव अनुभव नहीं करता॥१२॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् एवं ऐश्वर्य का देने वाला स्वामी ( यत् जुजोषत् ) जिस को प्रेम करे तू ( तत् विविड्ढि ) उसी पदार्थ को प्राप्त करा। तू उस की ( सु-स्तुतिं स्तुहि ) उत्तम स्तुति कर। ( नमसा ) अति विनय से ( विवास ) उस की सेवा कर। हे (जरितः) विद्वन् ! स्तुतिकर्त्ता ! तू ( उप भूष ) सदा उस के समीप रह। और ( मा रुवण्यः ) कभी रो मत, गुनगुना मत। तू अपनी ( वाचं ) स्पष्ट वाणी को ( श्रावय ) उसे सुना दे और ( अङ्ग कुविद् वेदत् ) हे मनुष्य वह तुझे बहुत २ ऐश्वर्य देने वाला है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
रो मत, बात तो कह
पदार्थ
[१] हे जीव ! तू (तत्) = उस स्तोत्र को (विविड्ढि) = अपने में व्याप्त कर, (यत्) = जिस (ते) = तेरे स्तोत्र को (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (जुजोषत्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करे। हे जीव ! तू (सुष्टुतिम्) = उस उत्तम स्तुतिवाले प्रभु को (स्तुहि) = स्तुत कर। (नमसा) = नमन के द्वारा (आविवास) = उस प्रभु का आभिमुख्येन उपासन कर। [२] हे (जरितः) = स्तोत: ! (उपभूष) = अपने जीवन को अलंकृत कर। (मा रुवण्यः) = धन आदि के अभाव के कारण रो नहीं। (वाचं श्रावया) = ज्ञान की वाणियों को सुना। अथवा प्रार्थना तो कर। वे प्रभु (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब ही (वेदत्) = धन प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन व पूजन कर अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत कर । रो मत। बात तो कह । प्रभु खूब ही धन प्राप्त कराते हैं।
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