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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 21
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स वृ॑त्र॒हेन्द्र॑ ऋभु॒क्षाः स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो हव्यो॑ बभूव । कृ॒ण्वन्नपां॑सि॒ नर्या॑ पु॒रूणि॒ सोमो॒ न पी॒तो हव्य॒: सखि॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वृ॒त्र॒ऽहा । इन्द्रः॑ । ऋ॒भु॒क्षाः । स॒द्यः । ज॒ज्ञा॒नः । हव्यः॑ । ब॒भू॒व॒ । कृ॒ण्वन् । अपां॑सि । नर्या॑ । पु॒रूणि॑ । सोमः॑ । न । पी॒तः । हव्यः॑ । सखि॑ऽभ्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वृत्रहेन्द्र ऋभुक्षाः सद्यो जज्ञानो हव्यो बभूव । कृण्वन्नपांसि नर्या पुरूणि सोमो न पीतो हव्य: सखिभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । वृत्रऽहा । इन्द्रः । ऋभुक्षाः । सद्यः । जज्ञानः । हव्यः । बभूव । कृण्वन् । अपांसि । नर्या । पुरूणि । सोमः । न । पीतः । हव्यः । सखिऽभ्यः ॥ ८.९६.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, destroyer of darkness, ignorance and exploitation, is patron of the wise and intelligent artists, scientists, technologists and pioneers in the fields of development and progress, and constantly born and reborn in manifested glory and dignity, he is the highest adorable power and person. Doing many many noble acts worthy of a dynamic and progressive humanity, he is inspiring as soma, loved, honoured and adorable for friends, companions and co-workers wherever he is.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्याचा साधक पुरुष जेव्हा सिद्ध अवस्थेमध्ये पोचतो तेव्हा सर्व साधक त्याचे प्रशंसक बनतात व त्याच्या गुणांचे अनुकरण करतात. ॥२१॥

    टिप्पणी

    विशेष - या सूक्तात हे दर्शविले आहे, की कशा प्रकारे माणूस आपल्या वीर्याचा सदुपयोग करून स्वत: उन्नत होतो व कोणत्या प्रकारे दुसऱ्या साधकाचे मार्गदर्शन करू शकतो.

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र (वृत्रहाः) विघ्ननाशक (ऋभुक्षाः) मेधावियों को आश्रय देने वाला (जज्ञानः) प्रकट होकर (सद्यः) तत्काल (हव्यः) स्तुत्य (बभूव) हो जाता है। (पुरूणि) बहुत से (नर्या) नर हितकारी पौरुष के (अपांसि) कर्म करता हुआ वह (पीतः सोमः नः) पान किये गए सोमलतादि के रस के तुल्य सेवित वह वीर्यवान् (सखिभ्यः) सखाओं के हेतु (हव्यः) वन्दनीय हो जाता है।॥२१॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्य साधक व्यक्ति ज्यों ही सिद्ध अवस्था पा जाता है, सर्व साधक उसके स्तोता तथा उसके गुणों के अनुकर्ता बन जाते हैं॥२१॥ अष्टम मण्डल में छियानवेवाँ सूक्त व पैंतीसवाँ वर्ग समाप्त॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः) वह (वृत्र-हा) दुष्टों और विघ्नों का नाशक, (ऋभु-क्षा:) बल और गुणों से महान्, वा सत्य से दीप्तियुक्त, विद्वान्, तेजस्वी, शिल्पी ( आदि जन को आश्रय देने वाला, ( जज्ञानः ) प्रकट होकर ( सद्यः हव्यः बभूव ) शीघ्र ही स्तुत्य, उपादेय हो जाता है। वह ( पुरूणि नर्य्या अपांसि कृण्वन्) नायक योग्य वा प्रजाजन के हितार्थ बहुत से कर्मों को करता हुआ ( पीतः सोमः न ) पान वा पालन योग्य सोम रस, ऐश्वर्यं वा पुत्रादि के समान ही ( सखिभ्यः हव्यः ) मित्रों के लिये स्तुत्य हो जाता है। इति पञ्चत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त में परमेश्वर के सृष्टि रचनाविषयक निदर्शन आत्मा का शरीरग्रहण, रचना और वशीकरण, योग-साधनादि का भी निर्देश है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृत्रहा - ऋभुक्षाः

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे (वृत्रहा) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभु (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं। (ऋभुक्षा:) = [ऋभुभिः सह क्षियति] ज्ञानदीप्त पुरुषों के साथ निवास करनेवाले हैं। (सद्यः जज्ञान:) = ज्ञानियों के हृदयों में शीघ्र ही प्रादुर्भूत होते हुए प्रभु (हव्यः बभूव) = पुकारने योग्य होते हैं। [२] ये प्रभु (नर्या) = नरहितकारी (पुरूणि) = बहुत (अपांसि) = कर्मों को (कृण्वन्) = करते हुए, (पीतः सोमः न) = शरीर में सुरक्षित सोम की तरह, (सखिभ्यः) = मित्रभूत ऋत्विजों से (हव्यः) = पुकारने योग्य होते हैं। शरीर में सुरक्षित सोम जैसे हमारा हित करता है उसी प्रकार प्रभु अपने सखाओं का हित करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु वासना को विनष्ट कर हमें ज्ञान प्राप्त कराते हैं । ज्ञानियों में निवास करते हुए वे प्रभु उनके माध्यम से सब नरहितकारी कर्मों को करते हैं। अगले सूक्त का ऋषि यह ज्ञानी स्तोत्र 'रेभः काश्यपः' नामवाला है। यह इन्द्र का स्तवन इस प्रकार करता है-

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