ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
गि॒रा यदी॒ सब॑न्धव॒: पञ्च॒ व्राता॑ अप॒स्यव॑: । प॒रि॒ष्कृ॒ण्वन्ति॑ धर्ण॒सिम् ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रा । यदि॑ । सऽब॑न्धवः । पञ्च॑ । व्राताः॑ । अ॒प॒स्यवः॑ । प॒रि॒ऽकृ॒ण्वन्ति॑ । ध॒र्ण॒सिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरा यदी सबन्धव: पञ्च व्राता अपस्यव: । परिष्कृण्वन्ति धर्णसिम् ॥
स्वर रहित पद पाठगिरा । यदि । सऽबन्धवः । पञ्च । व्राताः । अपस्यवः । परिऽकृण्वन्ति । धर्णसिम् ॥ ९.१४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पञ्च व्राताः) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि (सबन्धवः) कर्मेन्द्रियसहिताः (यदि अपस्यवः) यदा ईश्वरपराणि भवन्ति तदा (गिरा) परमात्मस्तुत्या (धर्णसिम्) इमां पृथिवीं (परिष्कृण्वन्ति) भूषयन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पञ्च व्राताः) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (सबन्धवः) कर्मेन्द्रियों के साथ (यदि अपस्यवः) जब ईश्वरपरायण हो जाती हैं, तो (गिरा) परमात्मा की स्तुति से (धर्णसिम्) इस पृथिवी को (परिष्कृण्वन्ति) भूषित कर देती हैं ॥२॥
भावार्थ
ज्ञानयोगी पुरुष जब शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध इन पाँच विषयों को हटा कर अपने पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को ईश्वर की ओर लगा देता है, तो इस सम्पूर्ण संसार को अलंकृत करता है। तात्पर्य यह है कि स्वभावतः बहिर्मुख इन्द्रियों को जिनको “पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः” कठ ४।१। स्वयंभू विधाता ने स्वभावतः बाहर की ओर बहनेवाली बनाया है, कोई एक धीर वीर पुरुष ही उनके वेग को बाहर से हटा कर उनको अन्तर्मुखी बनाता है, अन्य नहीं ॥२॥
विषय
सोम का परिष्करण
पदार्थ
[१] शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, (यदि ई) = अगर ये (पञ्च व्राताः) = पाँच समूह रूप में रहनेवाली ज्ञानेन्द्रियाँ (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के साथ (सबन्धवः) = समान रूप से बन्धनवाली होती हैं, अर्थात् यदि ये सदा ज्ञान प्राप्ति में लगी रहती हैं। तो ये (धर्णसिम्) शरीर के धारक सोम को (परिष्कृण्वन्ति) = शरीर में ही परिष्कृत करती हैं । [२] इसी प्रकार शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियाँ है, (यदि ई) = अगर ये (पञ्च व्राताः) = पाँच समूह रूप में रहनेवाली कर्मेन्द्रियाँ (गिरा) = ज्ञान की वाणी के अनुसार (अपस्यवः) = अपने साथ कर्मों को जोड़ने की कामनावाली होती हैं तो (धर्णसिम्) = शरीर धारक सोम को (परिष्कृण्वन्ति) = शरीर में ही अलंकृत करती हैं । एवं सोमरक्षण का उपाय यह है कि ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगी रहें तथा कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहें ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान प्राप्ति व यज्ञादि कर्मों में लगे रहकर हम सोम का रक्षण करनेवाले हों।
विषय
पांचों जन-संघों से अध्यक्ष का प्रस्ताव समर्थन।
भावार्थ
(यदी) जब (सबन्धवः) समान रूप से सम्बद्ध, (पञ्च व्राताः) पांचों प्रकार के मनुष्य-संघ, (अपस्यवः) कर्म की इच्छा करते हैं तब वे उस (धर्णसिम्) सबके धारक पोषक को (गिरा) वाणी द्वारा (परि-कृण्वन्ति) स्तुति से सुशोभित करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः-१-३,५,७ गायत्री। ४,८ निचृद् गायत्री। ६ ककुम्मती गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Five peoples together as kindred, five perceptive organs together with volitional sense organs, dedicated and committed to their law and discipline of Dharma, desirous to do good, all honour and adore the sustainer, Soma, lord of peace and joy, the earth mother, and the master soul with their sacred work and voice.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानयोगी जेव्हा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध या पाच विषयांना हटवून आपल्या पाच ज्ञानेंद्रियांना ईश्वराकडे वळवितो तेव्हा या संपूर्ण जगाला तो अलंकृत करतो. स्वभावत: बहिर्मुख इंद्रियांना ‘‘पराञ्चि खानिव्यतृणत्स्वयंभू’’ क. ४।१ स्वयंभू विधात्याने बाहेर प्रवाहित करणारे बनविले आहे. एखादाच धीर-वीर पुरुष त्यांचा वेग बाहेरून हटवून अन्तर्मुखी बनवितो, अन्य नाही. ॥२॥
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