ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
न॒प्तीभि॒र्यो वि॒वस्व॑तः शु॒भ्रो न मा॑मृ॒जे युवा॑ । गाः कृ॑ण्वा॒नो न नि॒र्णिज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठन॒प्तीभिः॑ । यः । वि॒वस्व॑तः । शु॒भ्रः । न । म॒मृ॒जे । युवा॑ । गाः । कृ॒ण्वा॒नः । न । निः॒ऽनिज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नप्तीभिर्यो विवस्वतः शुभ्रो न मामृजे युवा । गाः कृण्वानो न निर्णिजम् ॥
स्वर रहित पद पाठनप्तीभिः । यः । विवस्वतः । शुभ्रः । न । ममृजे । युवा । गाः । कृण्वानः । न । निःऽनिजम् ॥ ९.१४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः) यः परमात्मा (विवस्वतः) विज्ञानिनो जिज्ञासोः (नप्तीभिः) चित्तवृत्तिभिः (शुभ्रः) प्रकाशमानः (युवा) समीपस्थवस्तु (न) इव (मामृजे) साक्षात्कृतो भवति स साक्षात्कारश्च (गाः कृण्वानः) इन्द्रियाणि प्रीणयन् (निर्णिजम् न) रूपमिव सम्पद्यते ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (विवस्वतः) विज्ञानवाले जिज्ञासु की (नप्तीभिः) चित्तवृत्तियों द्वारा (शुभ्रः) प्रकाशित होकर (युवा) समीपस्थ वस्तु के (न) समान (मामृजे) साक्षात्कार को प्राप्त होता है और वह साक्षात्कार (गाः कृण्वानः) इन्द्रियों को प्रसन्न करते हुए (निर्णिजम् न) रूप के समान होता है ॥५॥
भावार्थ
जो पुरुष अपने मन को शुद्ध करते हैं, वे उस पुरुष का साक्षात्कार करते हैं। उन पुरुषों की चित्तवृत्तियें उसको हस्तामलकवत् साक्षाद्रूप से अनुभव करती हैं अर्थात् शुद्ध मन द्वारा साक्षात् किये हुए परमात्मध्यान में फिर किसी प्रकार का भी संशय व विपर्ययज्ञान नहीं होता ॥५॥३॥
विषय
ज्ञान के द्वारा सोम का शोधन सोम शुद्धि से ज्ञानदीप्ति
पदार्थ
[१] (यः) = जो (युवा) = हमारे सब दोषों को पृथक् करनेवाला [यु अमिश्रणे ] तथा सब गुणों को मिलानेवाला [यु मिश्रणे ] सोम है, वह (विवस्वतः) = ज्ञान के सूर्य की (नप्तीभिः) = न पतन होने देनेवाली शक्तियों से (शुभ्रः) = उज्ज्वल हुआ हुआ (न) = अब [न इति संप्रत्यर्थे] (मामृजे) = हमारे जीवनों को शुद्ध बनाता है। ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से वासनाओं को उबाल नहीं आता। परिणामतः सोम शरीर में सुरक्षित रहता है। सुरक्षित हुआ हुआ यह हमारे जीवनों को शुद्ध बना डालता है। [२] (न) = [न=च] और यह सोम (गाः) = ज्ञान की वाणियों को (कृण्वान:) = हमारे मस्तिष्क में दीप्त करता हुआ (निर्णिजम्) = शोधन व पोषण के लिये होता है । सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, ज्ञानाग्नि की दीप्ति से हम वेदवाणियों को स्पष्ट रूप में देखते हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ हमारे जीवन को शुद्ध बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्वाध्याय की प्रवृत्ति सोम को शुद्ध करती है। शुद्ध सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता हुआ इन ज्ञान की वाणियों से हमारा शोधन करता है।
विषय
सूर्यवत् तेजस्वी का अभिषेक और उसकी शुभ्र कीर्त्ति।
भावार्थ
(यः) जो (विवस्वतः शुभ्रः) सूर्य के शुभ्र प्रकाश के समान (नप्तीभिः युवा) बलवान् पुरुष अपने साथ सम्बद्ध प्रजाओं और और सेनाओं के द्वारा (मामृजे) अभिषिक्त होता है वह (गाः कृण्वानः न) दूधों का सेवन करने वाले के समान स्वयं भी (गाः कृण्वानः) उत्तम आज्ञा-वाणियां प्रकट करता हुआ (निर्णिजम्) अपने रूप, वेश वा यश को भी शुद्ध, स्वच्छ और उज्ज्वल कर लेता है। इति तृतीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः-१-३,५,७ गायत्री। ४,८ निचृद् गायत्री। ६ ककुम्मती गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Shining as pure and radiant by the mind and senses of the ardent devotee, it joins the sage and, perfecting his mind and intelligence, reveals itself in vision as if in concentrated form and splendour.
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे आपल्या मनाला शुद्ध करतात ती त्या परमेश्वराचा साक्षात्कार करतात. त्या माणसांच्या चित्तवृत्ती त्याला हस्तमलकावत साक्षातरूपाने अनुभव करतात अर्थात् शुद्ध मनाद्वारे साक्षात् केलेल्या परमात्मध्यानात पुन्हा कोणत्याही प्रकारचाही संशय व विपर्ययज्ञान होत नाही. ॥५॥
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