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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आद॑स्य शु॒ष्मिणो॒ रसे॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑मत्सत । यदी॒ गोभि॑र्वसा॒यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । अ॒स्य॒ । शु॒ष्मिणः॑ । रसे॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । अ॒म॒त्स॒त॒ । यदि॑ । गोभिः॑ । व॒सा॒यते॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदस्य शुष्मिणो रसे विश्वे देवा अमत्सत । यदी गोभिर्वसायते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । अस्य । शुष्मिणः । रसे । विश्वे । देवाः । अमत्सत । यदि । गोभिः । वसायते ॥ ९.१४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यदि) चेद् (विश्वेदेवाः) सम्पूर्णविद्वांसः (अस्य) इमम्पूर्वोक्तं (शुष्मिणः) बलिनम्परमात्मानं (गोभिः वसायते) इन्द्रियगोचरं कुर्युः (आत्) तदा पुनः ते सर्वे (अमत्सत) ध्यानविषयं तं कृत्वा नन्दन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यदि) अगर ((विश्वेदेवाः) सम्पूर्ण विद्वान् (अस्य) पूर्वोक्त (शुष्मिणः) बलसम्पन्न परमात्मा को (गोभिः वसायते) इन्द्रियगोचर कर सकें (आत्) तदनन्तर वे सब देव (अमत्सत) उस को ध्यान का विषय बनाकर आनन्दित होते हैं।

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम्हारे इन्द्रिय तुमको स्वभाव से बहिमुर्ख बनाते हैं। तुम यदि संयमी बन कर उनका संयम करो, तो इन्द्रिय परमात्मा के स्वरूप को विषय करके तुम्हें आनन्दित करेंगे। इसी अभिप्राय से उपनिषद् में कहा है कि “कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत्” क० ४।१। कोई धीर पुरुष ही प्रत्यगात्मा को देख सकता है। यहाँ देखने के अर्थ व इन्द्रियगोचर करने के अर्थ मूर्तिमान् पदार्थ के समान देखने के नहीं, किन्तु जिस प्रकार निराकार और निरूप होने पर भी सुखु-दुःखादिकों का अनुभव होता है, इस प्रकार अनुभव का विषय बनाने का नाम यहाँ देखना व इन्द्रियगोचर करना है। इसी अभिप्राय से “दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः” कि वह सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा देखा जा सकता है, कहा है। सूक्ष्म बुद्धि से तात्पर्य यहाँ योगज सामर्थ्य का है अर्थात् चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा परमात्मा का अनुभव हो सकता है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्” उस समय द्रष्टा के स्वरूप में स्थिति हो जाती है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “यदि गोभिर्वसायते” ॥३॥

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    विषय

    दिव्य गुणों का विकास

    पदार्थ

    [१] (आत्) = गत मन्त्र के अनुसार सोम का परिष्करण करने के अनन्तर (शुष्मिणः अस्य) = शक्तिशाली इस सोम के रसे रस में, आनन्द में (विश्वे देवा:) = सब देव (अमत्सत) = आनन्द का अनुभव करते हैं। 'सब देव आनन्द का अनुभव करते हैं' इस वाक्य का भाव यह है कि सब दिव्य गुणों का विकास होता है । [२] यह विकास होता तभी है (यद् ई) = जब यह सोम निश्चय से (गोभि:) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (वसायते) = आच्छादित किया जाता है। अर्थात् स्वाध्याय में प्रवृत्त होने के द्वारा जब हम सोम का रक्षण करते हैं तब हमारे जीवनों में दिव्य गुणों का विकास होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - स्वाध्याय में प्रवृत्त रहकर हम सोम शक्ति को वासनाओं के आक्रमण से बचायें और इस सोमरक्षण से हमारे जीवन में दिव्य गुणों का विकास हो ।

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    विषय

    उसके अभिषेक में सब की प्रसन्नता।

    भावार्थ

    (यदी) जब वह (गोभिः) उत्तम वाणियों से (वसायते) आच्छादित, अलंकृत होता है (आत्) अनन्तर ही (विश्वे देवाः) ऐश्वर्य आदि नाना अभिलाषाओं वाले सब मनुष्य (अस्य शुष्मिणः रसे) इस बलवान् पुरुष के बल के अधीन रह कर (अमत्सत) बहुत प्रसन्न हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः-१-३,५,७ गायत्री। ४,८ निचृद् गायत्री। ६ ककुम्मती गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And then in the pleasure and ecstasy of this Soma, lord of bliss, all sages, scholars and divines of the world exult when they are able to apprehend with their mind and senses his presence and when he feels pleased by their songs of adoration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की, हे माणसांनो! तुमची इंद्रिये तुम्हाला स्वाभाविकरीतीने बहिर्मुख बनवितात. जर तुम्ही संयमी बनून त्यांना संयमी केले तर इंद्रिये परमात्म्याच्या स्वरूपाकडे वळून तुम्हाला आनंदित करतील. या विषयी उपनिषदात म्हटले आहे की ‘‘काश्वेदधीर: प्रत्यागात्मानमैक्षत’’ क. ४।१ एखादा धीर पुरुषच प्रत्यगात्म्याला (परमेश्वराला) पाहू शकतो. येथे पाहण्याचा अर्थ व इंद्रिय गोचर करण्याचा अर्थ प्रत्यक्ष पदार्थाला पाहण्याप्रमाणे नाही; परंतु ज्या प्रकारे निराकार व रूपहीन असल्यावरही सुख:दुखाचा अनुभव येतो त्या प्रकारच्या अनुभवाचा विषय बनविण्याचे नाव येथे पाहणे व इंद्रियगोचर करणे याचा अभिप्राय ‘‘दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:’’ तो सूक्ष्मबुद्धीद्वारे पाहिला जाऊ शकतो. सूक्ष्म बुद्धीचे तात्पर्य येथे योगज सामर्थ्य आहे. अर्थात चित्तवृत्ती निरोधाद्वारे परमात्म्याचा अनुभव घेता येतो यामुळे येथे म्हटले आहे की ‘‘तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम्’’ यावेळी द्रष्ट्याच्या स्वरूपात स्थिती होते. याच अभिप्रायाने म्हटले आहे की, यदिगोभिर्वसायत ॥३॥

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