ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि विप्रा॑ अनूषत मू॒र्धन्य॒ज्ञस्य॑ का॒रव॑: । दधा॑ना॒श्चक्ष॑सि प्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । विप्राः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । मू॒र्धन् । य॒ज्ञस्य॑ । का॒रवः॑ । दधा॑नाः । चक्ष॑ति । प्रि॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि विप्रा अनूषत मूर्धन्यज्ञस्य कारव: । दधानाश्चक्षसि प्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । विप्राः । अनूषत । मूर्धन् । यज्ञस्य । कारवः । दधानाः । चक्षति । प्रियम् ॥ ९.१७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कारवः) कर्मकाण्डिनः (चक्षसि प्रियम् दधानाः) तत्र सर्वद्रष्टरि प्रेम दधानाः (विप्राः) विद्वांसश्च (यज्ञस्य मूर्धनि) यज्ञारम्भे (अभ्यनूषत) तं परमात्मानं साधु स्तुवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कारवः) कर्मकाण्डी और (चक्षसि प्रियम् दधानाः) उस सर्वद्रष्टा परमेश्वर में प्रेम को धारण करते हुए (विप्राः) विद्वान् लोग (यज्ञस्य मूर्धनि) यज्ञ के प्रारम्भ में (अभ्यनूषत) उस परमात्मा की भली-भाँति स्तुति करते हैं ॥६॥
भावार्थ
यज्ञ के प्रारम्भ में उद्गाता आदि लोग पहले परमात्मा के महत्त्व का गायन करके फिर यज्ञ के अन्य कर्मों का आरम्भ करते हैं ॥६॥
विषय
विप्राः - कारवः
पदार्थ
[१] (विप्रः) = अपना विशेष रूप से पूरण करनेवाले, (कारवः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले पुरुष (यज्ञस्य) = श्रेष्ठतम कर्म के (मूर्धन्) = शिखर में (अभि अनूषत) = प्रातः सायं स्तवन करते हैं। यज्ञों को करना व प्रभु-स्तवन करना ही सोमरक्षण का साधन है । [२] (चक्षसि) = ज्ञान के होने पर (प्रियं दधानाः) = इस प्रीणित करनेवाले सोम को ये धारित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के तीन साधन हैं- [क] यज्ञों में लगना, [ख] प्रभु-स्तवन, [ग] स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवर्धन ।
विषय
प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
(यज्ञस्य मूर्धन्) यज्ञ के शिर के समान सर्वोपरि विद्यमान (चक्षसि) चक्षुर्वत् सर्वद्रष्टा प्रभु में (प्रियम् दधानाः) अपने प्रीति- युक्त भाव को रखते हुए, (कारवः) कर्मनिष्ठ, स्तुतिकर्त्ता (विप्राः) विद्वान् जन (अभि अनूषत) उसी प्रभु की साक्षात् स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३-८ गायत्री। २ भुरिग्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Poets, vibrant scholars and sages and earnest supplicants adore and glorify Soma in the beginning of yajna, reposing perfect faith and love in the all-watching divine lord of peace, power and glory.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञाच्या प्रारंभी उद्गाता इत्यादी लोक प्रथम परमात्माच्या महत्त्वाबाबत गायन करून पुन्हा यज्ञाच्या इतर कर्मांचा आरंभ करतात. ॥६॥
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