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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स भिक्ष॑माणो अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑ण उ॒भे द्यावा॒ काव्ये॑ना॒ वि श॑श्रथे । तेजि॑ष्ठा अ॒पो मं॒हना॒ परि॑ व्यत॒ यदी॑ दे॒वस्य॒ श्रव॑सा॒ सदो॑ वि॒दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । भिक्ष॑माणः । अ॒मृत॑स्य । चारु॑णः । उ॒भे इति॑ । द्यावा॑ । काव्ये॑न । वि । श॒श्र॒थ्चे । तेजि॑ष्ठाः । अ॒पः । मं॒हना॑ । परि॑ । व्य॒त॒ । यदि॑ । दे॒वस्य॑ । श्रव॑सा । सदः॑ । वि॒दुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे । तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदो विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । भिक्षमाणः । अमृतस्य । चारुणः । उभे इति । द्यावा । काव्येन । वि । शश्रथ्चे । तेजिष्ठाः । अपः । मंहना । परि । व्यत । यदि । देवस्य । श्रवसा । सदः । विदुः ॥ ९.७०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भिक्षमाणः) प्रकृतितत्त्वस्य लाभं कुर्वन्तं (चारुणोऽमृतस्य) प्रियामृतप्रदातारं (उभे द्यावा) द्युलोकं पृथिवीलोकं च (काव्येन) स्वचातुर्येण (विशश्रथे) व्यक्तं करोति (सः) असौ परमात्मा (तेजिष्ठा अपः) तेजस्विजलपरमाणूनां (मंहना) महत्त्वेन (परिव्यत) आच्छादयति। (यदि देवस्य) यदि दिव्यज्ञानस्य (श्रवसा) महत्त्वेन (सदः) सद्रूपब्रह्म (विदुः) विदाङ्कुर्वन्तु चेत्तदोक्तपरब्रह्मणः कर्तृत्वं ज्ञास्यन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भिक्षमाणः) प्रकृतिरूपी लाभ करता हुआ (चारुणोऽमृतस्य) सुन्दर अमृत देनेवाले (उभे द्यावा) द्युलोक और पृथिवीलोक को (काव्येन) अपनी चतुराई से (विशश्रथे) व्यक्त करता है। (सः) वह परमात्मा (तेजिष्ठा अपः) तेजस्वी जलमय परमाणुओं के (मंहना) महत्त्व से (परिव्यत) आच्छादन करता है। (यदि देवस्य) अगर दिव्यज्ञान के (श्रवसा) महत्त्व से (सदः) सद्रूपब्रह्म को (विदुः) जाने, तो उक्त परमात्मा के कर्तव्य को जान सकते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्मा के महत्त्व को जानते हैं, वे ही इस जगत् की अद्भुत सत्ता जान सकते हैं, अन्य नहीं ॥१॥

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    विषय

    देवस्य सदः विदुः

    पदार्थ

    [१] (स) = वह सोमरक्षक पुरुष (अमृतस्य) = नीरोगता के आधारभूत (चारुणः) = जीवन को सुन्दर बनानेवाले इस सोम का (भिक्षमाणः) = याचन करता हुआ, सोमरक्षण के लिये ही प्रभु से आराधना करता हुआ, (उभे द्यावा) = दोनों मस्तिष्क व शरीर रूप द्यावापृथिवी को (काव्येन) = उत्कृष्ट ज्ञान से (विशश्रथे) = [delight repeatedly] निरन्तर आनन्दित करता है। [२] इस सोमरक्षण के द्वारा (तेजिष्ठा:) = अत्यन्त तेजस्विता को धारण करानेवाले (अपः) = रेतः कणों को परिवत चारों ओर से ओढ़नेवाला बनता है। रेतः कणों को अपना कवच बनाता है। (मंहना) = [ मंह = To grow, increase, To shine] विकास के दृष्टिकोण से अथवा चमकने के दृष्टिकोण से वह ऐसा करता है। सारी उन्नति व दीप्ति का निर्भर इस सोम पर ही तो है। इस सोम को अपना कवच बनाने पर (यद्) = जब (ई) = निश्चय से ये सोमरक्षक पुरुष (श्रवसा) = ज्ञान प्राप्ति के द्वारा (देवस्य सदः) = उस देव के अधिष्ठान, अर्थात् ब्रह्मलोक को (विदुः) = जान लेते हैं। सोमरक्षण से अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए अन्ततः हम ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम [वीर्य] अमृत है, चारु [सुन्दर] है। ये शरीर व मस्तिष्क को दीप्ति से युक्त करता है। इसके द्वारा हम ज्ञान वृद्धि को करते हुए अन्ततः ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं ।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के लिये भिक्षावृत्ति, ब्रह्मचर्य पालन

    भावार्थ

    (सः) वह विद्याभिलाषी ब्रह्मचारी एवं ज्ञानवान् संन्यासी (चारुणः अमृतस्य) उत्तम अन्न की (भिक्षमाणः) भिक्षा करता हुआ, (काव्येन) उत्तम विद्वानों से उपदिष्ट वेदमय ज्ञान से (उभे द्यावा) स्त्री पुरुषों के दोनों वर्गों को (वि शश्रये) विविध मार्गों में प्रेरित करता रहे। वह (मंहना) महान सामर्थ्य से (तेजिष्ठाः अपः परि व्यत) अति तेजो युक्त प्राणों वीर्यों को सब प्रकार से सुरक्षित रक्खे। (यदि) जब कि लोग (श्रवसा) अन्न सहित वा ज्ञानसहित (देवस्य सदः) दाता, सर्वप्रकाशक वा भिक्षाभिलाषी के (सदः) स्थान को लोग (विदुः) प्राप्त हों। परमात्मा पक्ष में—जब लोग उस प्रभु के स्वरूप को ज्ञान से प्राप्त करें तब वह अपने महान् सामर्थ्य से तेजोयुक्त जलों को मेघवत् ज्ञानों का प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He, loving, sharing and pervading the immortal beauty of existence, orders and adorns both heaven and earth with his art, intelligence and poetic sublimity, also vesting the vapours of the middle regions with his might and splendour. Those who know the reality of the lord’s creation alongwith his power, love and generosity really know and share the bliss.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष परमेश्वराचे महत्त्व जाणतात तेच या जगाची अद्भुत सत्ता जाणू शकतात, इतर नाही. ॥२॥

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