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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ते अ॑स्य सन्तु के॒तवोऽमृ॑त्य॒वोऽदा॑भ्यासो ज॒नुषी॑ उ॒भे अनु॑ । येभि॑र्नृ॒म्णा च॑ दे॒व्या॑ च पुन॒त आदिद्राजा॑नं म॒नना॑ अगृभ्णत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । अ॒स्य॒ । स॒न्तु॒ । के॒तवः॑ । अमृ॑त्यवः । अदा॑भ्यासः । ज॒नुषी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अनु॑ । येभिः॑ । नृ॒म्णा । च॒ । दे॒व्या॑ । च॒ । पु॒न॒ते । आत् । इत् । राजा॑नम् । म॒ननाः॑ । अ॒गृ॒भ्ण॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते अस्य सन्तु केतवोऽमृत्यवोऽदाभ्यासो जनुषी उभे अनु । येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । अस्य । सन्तु । केतवः । अमृत्यवः । अदाभ्यासः । जनुषी इति । उभे इति । अनु । येभिः । नृम्णा । च । देव्या । च । पुनते । आत् । इत् । राजानम् । मननाः । अगृभ्णत ॥ ९.७०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) पूर्वोक्ताः (अमृत्यवः) मरणधर्मशून्याः (अदाभ्यासः) अदम्भनीयास्तत्त्वविदः (अस्य) अमुष्य जगतः (केतवः) मौलिमणिस्थानीयाः (सन्तु) भवन्तु (उभे जनुषी) उभयजन्म (अनु) लक्ष्यीकृत्य (देव्या नृम्णा) दिव्यानि कर्माणि (येभिः) यैः क्रियन्ते ते एव (पुनते) जगत् पवित्रयन्ति। (च) अथ च (आदित्) ते एव (मननाः) मान्याः (राजानम्) स्वतःप्रकाशं परमात्मानं (अगृभ्णत) गृह्णन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) वे (अमृत्यवः) मरणधर्रहित (अदाभ्यासः) अदम्भनीय पूर्वोक्त तत्त्ववेत्ता लोग (अस्य) इस संसार के (केतवः) मौलिकमणिस्थानी (सन्तु) हों। (उभे जनुषी) दोनों जन्मों को (अनु) लक्ष्य करके (देव्या नृम्णा) दिव्यकर्म (येभिः) जिनसे किये जाते हैं, वे ही लोग (पुनते) संसार को पवित्र करते हैं (च) और (आदित्) वे ही (मननाः) माननीय (राजानम्) प्रकाशरूप परमात्मा को (अगृभ्णत) ग्रहण करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो लोग लोक और परलोक को लक्ष्य रखकर शुभ कर्म करते हैं, वे ही परमात्मा के ज्ञानपात्र हो सकते हैं, अन्य नहीं ॥३॥

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    विषय

    'केतवः, अमृत्यवोऽदाभ्यासः '

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे सोमकण (अस्य) = इस सोमरक्षक पुरुष के (केतवः) = प्रज्ञान का साधन (सन्तु) हों । ये सोमकण ही तो ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं। (अमृत्यवः) = ये सोमकण अ-मृत्यु हैं, इस सोमी पुरुष को रोगरूप मृत्युओं से आक्रान्त नहीं होने देते । (अदाभ्यासः) = ये काम-क्रोध आदि वासनाओं से हिंसित नहीं होते । सोमरक्षक पुरुष इन वासनाओं का शिकार नहीं होता। इस प्रकार (उभे जनुषी अनु) = भौतिक व अध्यात्म दोनों जीवनों के ये बड़े अनुकूल होते हैं। नीरोगता से भौतिक जीवन की सौन्दर्य बना रहता है और मन की निर्वासनता के कारण अध्यात्म जीवन सुन्दर होता है। [२] ये सोमकण वे हैं, (येभिः) = जिनके द्वारा भौतिक जीवन के दृष्टिकोण से नृम्णा बलों का (पुनते) = पवित्रीकरण करते हैं, (च) = और अध्यात्म दृष्टिकोण से (देव्या) = दिव्यगुणों को अपने में प्रेरित करते हैं [प्रेरयन्ति सा० ] (आत् इत्) = अब शीघ्र ही (राजानम्) = जीवन को दीप्त करनेवाले इस सोम को (मनना) = मनन के द्वारा (अगृभ्णत) = ग्रहण करते हैं । मनन-चिन्तन व ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से सोम का रक्षण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमकण मस्तिष्क के दृष्टिकोण से 'केतवः', शरीर के दृष्टिकोण से 'अमृत्यवः ' तथा हृदय के दृष्टिकोण से 'अदाभ्यासः ' हैं। ये शरीर में बल को देते हैं तो मन में दिव्यगुणों का धारण करते हैं । मनन द्वारा इनका रक्षण होता है ।

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    विषय

    विद्योपार्जनार्थ गुरुगृह में वास,और प्रभु की आराधना।

    भावार्थ

    (उभे जनुषी अनु) स्थावर और जंगम दोनों जन्म वालों के प्रति वा आकाश भूमि दोनों के सम्बन्ध में (अस्य) इसके (ते) वे नाना (केतवः) ज्ञान (अमृत्यवः) मृत्यु से रहित, (अदाभ्यासः) अविनाशी (सन्ति) हों। (येभिः) जिन ज्ञानप्रकाशों से वह (देव्या च नृम्णा च) विद्वान् मनुष्यों के समस्त धनों को (पुनते) प्राप्त कराता है। (आत् इत्) और तो भी (मनना) मननशील मनुष्य उस को (राजानं) अपने राजवत् परम तेजस्वी रूप से (अगृभ्णत) स्वीकार करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May those radiations of the light and power of this divine Soma, spirit of bliss, free from mortality, deception or unreality, by which the lord strengthens, purifies and sanctifies acts and virtues both human and natural, be in accord with life, human as well as of other forms, and may humanity receive and internalise that divine spirit of love, peace and refulgence with all their thought, thoughtful action and meditation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे लोक व परलोकाला लक्ष्य बनवून शुभ कर्म करतात तीच परमात्म्याचे ज्ञान पात्र होऊ शकतात, इतर नव्हे ॥३॥

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